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राज खन्ना एक बेहतरीन दोस्त हैं। उन्हें पत्रकार कहना उन्हें कम करके आंकना होगा। मैं नहीं समझता कि वे पत्रकार बन पाए। एक बेहतर मनुष्य कभी अच्छा पत्रकार नहीं बन सकता। अच्छा पत्रकार बनने के लिए थोड़े नेताओं के गुण भी होने चाहिए। थोड़ा झूठ बोलने का अभ्यास, कभी भी पाला बदलने की तैयारी और पत्रकार दिखने के लिए जरूरी संसाधन की व्यवस्था करने वाले लोगों का आस-पास होना। कोई साहब के लिए गाड़ी का दरवाजा खोले, कोई खर्च-बर्च की चिंता करे, कोई अफसरों-नेताओं को पहले ही सचेत किये रहे कि साहब आ रहे हैं ताकि उन्हें बाहर इन्तजार न करना पड़े। ये सब रोब-दाब के लिए जरूरी है लेकिन राज खन्ना जी में यह कुछ भी नहीं है। वे अखबारों के लिए चाहे जितना कुछ लिखते रहे हों, जितना अच्छा लिखते रहे हों, जितनी प्रशंसा हासिल करते रहे हों, मैं उन्हें पत्रकार के रूप में ख़ारिज ही करूंगा। वो पत्रकार क्या, जिसका कोई रोब-रुआब न हो, जिसकी बड़े अफसरों और नेताओं में चर्चा न हो, बैठकी न हो, जो कुछ गैर-कानूनी काम करा पाने की औकात न रखता हो। हाँ, वे एक बेहतरीन आदमी हैं और एक बार आप को समझ लिया, मान लिया तो समझिये, वो मानना जिंदगी भर चलता रहेगा। मेरी उनकी कुछ ऐसी ही बनती है। इसीलिये मैं बहुत कोशिश करके भी उनके बारे में कुछ लिखते हुए उनकी थोड़ी-बहुत अनावश्यक प्रशंसा कर ही दूंगा। जहां आप को ऐसा कुछ लगे आप उसे अस्वीकार करने के लिए स्वतंत्र होंगे। न मैं बुरा मानूंगा और न ही राज जी।

 उनकी यह नयी किताब आयी है, ‘आजादी के पहले, आजादी के बाद।’ मैंने उन्हें एक लेखक के रूप में कभी नहीं देखा। वे भी कभी अपने को लेखक की तरह दिखने में कोई यकीन नहीं रखते लेकिन उनके इष्ट-मित्र, उनका सुलतानपुर उन्हें न केवल अव्वल दर्जे का लेखक माåनता है, बल्कि उसी तरह अव्वल दर्जे का वक्ता भी। जब सुलतानपुर मानता है तो मुझे तो मानना ही पडेगा। वे जितना अच्छा बोलते हैं, उतना ही अच्छा लिखते भी हैं, जैसे बोलते हैं, वैसे ही लिखते हैं। उनका लिखा हुआ पढ़ते हुए आप को लग सकता है जैसे वे बोल ही रहे हों। इस तरह लिखना मुझे बहुत अच्छा लगता है। इस तरह लिखा हुआ अदना से अदना आदमी भी आसानी से समझ सकता है। कहूँ तो गलत नहीं कहूंगा कि  उनकी भाषा अखबारी है। अखबारी यानी हिन्दुस्तानी। जो आम लोग बोलते हैं, जो आम लोग समझते हैं। मेरे कहने का मतलब यह है कि  उनकी नयी किताब में जो लेख शामिल किये गए हैं, वह मुझे भी आसानी से समझ में आ गए क्योंकि मैं भी उसी भाषा का कायल हूँ। ये लेख किसी योजना के तहत लिखे गए हैं, ऐसा मुझे नहीं लगता लेकिन जिस तरह ये प्रस्तुत किये गए हैं, उससे यही लगता है कि सब कुछ बहुत सोच-समझ कर किया गया है। दरअसल यह सारा लेखन राज खन्ना जी की अपनी व्यक्तिगत रूचि से जुड़ा मालूम पड़ता है।  जैसा कि मैं समझता हूँ, उनकी रूचि इस बात में ज्यादा रहती है कि देश में सब ठीक-ठाक चले। जनता को कोई दुःख तकलीफ न हो।  अच्छी सरकार हो। वह खुद ही लोगों की कठिनाइयां समझ ले और उसके समाधान की ओर बढ़ जाए। लोग ईमानदारी से अपना काम करें। कुछ भी करते हुए यह ध्यान रखें कि उनके किये से किसी और का कोई नुकसान न हो।जब भी किसी कमजोर को, किसी जरूरतमंद को मदद की जरूरत महसूस हो, लोग मदद के लिए आगे आएं। भ्रष्टाचार न हो, धोखा, छल-कपट न हो, ठगी न हो। समाज में गैर-बराबरी न हो। महिलाओं का सम्मान हो। सभी बेहतर नागरिक की तरह काम करें, फिजूल की लंतरानियों से बचें। अफसर और नेता जनता के सेवक की तरह काम करें क्योंकि वे हैं ही जनता के सेवक। केवल सेवक या मुख्य सेवक या प्रधान सेवक कहने भर से काम नहीं चलेगा। मैं बहुत लम्बी सूची गिनाने की जगह कहूंगा कि राज खन्ना जी एक बेहतरीन देश की कल्पना करते हैं और उसमें सबकी सच्ची और सार्थक भूमिका चाहते हैं। लेकिन कठिनाई यही है कि वे देखते हैं कि ऐसा हो नहीं रहा है। ज्यादातर लोग अपने बारे में ज्यादा सोचते हैं, देश के बारे में, समाज के बारे में कम, बल्कि अपने लाभ के लिए वे समाज का, देश का नुकसान करने में भी संकोच नहीं करते। ऐसा सोचते हुए जब राज जी बहुत हैरान-परेशान होते हैं तो इसके कारणों की तलाश करते हैं। आखिर क्यों ऐसा है ? क्यों लोग इतने बेईमान हो गए हैं, क्यों लोग इतने स्वार्थी, छली हो गए हैं, क्यों लोग इतने धूर्त, पाखंडी हो गए हैं ? क्यों जातीय भेदभाव है, क्यों साम्प्रदायिक संघर्ष के हालात हैं, क्यों इतनी गरीबी है, गरीब और अमीर के बीच इतना फासला क्यों है? 

जब वर्तमान में इसका जवाब नहीं मिलता तो वे पीछे लौटते हैं। इतिहास में जाते हैं। पड़ताल करते हैं, परीक्षण करते हैं और उन वजहों की तलाश करते हैं, जिनके कारण हमारा इतना मूल्यगत, नैतिक और सामाजिक पतन हुआ।मेरे ख़याल से यही सब सोचते हुए ये सारे लेख राज खन्ना जी के हाथों लिखे गए होंगे। योजना नहीं कहूंगा लेकिन जब एक खास चिंतन किसी काम के पीछे होता है तो उसमें अनजाने ही एक तारतम्यता आ ही जाती है। कोई भी उनकी किताब पढ़ते हुए इसे महसूस कर सकता है। एकसूत्रात्मकता, एकात्मता, एकोन्मुखता, यह सब इस किताब में दिखाई पड़ती है। कोई सोच सकता है कि आज की समस्याएं हैं तो गुजरे हुए कल में क्या समाधान मिलेगा। जब कोई वैद्य या चिकित्सक किसी मरीज के मर्ज के बारे में जानना चाहता है तो उसे उसके इतिहास में ही जाना पड़ता है। एक बार कारण समझ में आ गया, एक बार जड़ मिल गयी तो निदान भी आसान हो जाता है और इलाज भी। अब राज खन्ना जी को इसमें कितनी कामयाबी मिली है, यह तो पाठक ही बतायेंगे लेकिन मैं उन कुछ ख़ास बिंदुओं पर गौर करने की कोशिश करूंगा, जो राज खन्ना की लेखन प्रक्रिया में एक सातत्य लेकर आते हैं, जिनके भीतर एक रास्ता नजर आता है, एक ऐसा रास्ता जिस पर चलकर हम डेड एन्ड की ओर बढ़ते जाने की नियति से बच सकते हैं, एक रचनात्मक प्रस्थान बिंदु पर जाकर खड़े हो सकते हैं, जहाँ से आगे बढ़ना फिर बहुत सहज होगा।  

यह पुस्तक तीन अध्यायों में बंटी हुई है। ‘आजादी की अलख’, ‘उनकी किसे याद’, ‘जो भुला दिए गए’। आप इस विभाजन पर गौर करें तो समझ में आएगा कि यह केवल समयगत विभाजन नहीं है, न ही यह किसी इतिहास क्रम का संकेत है। आजादी की अलख जगाने वालों का रास्ता साफ़ था। वे किसी भ्रम में नहीं थे। बात इतनी भर नहीं थी कि  वे आजादी चाहते थे, बात यह भी थी कि वे आजादी क्यों चाहते थे, किसके लिए चाहते थे। जब यह कहा गया कि स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है तो यूँ ही नहीं कहा गया, यह किसी व्यक्ति या किसी समूह का अंग्रेजों के खिलाफ ‘दुस्साहस’ मात्र नहीं था बल्कि इसके पीछे एक दृष्टि थी, एक विजन था। अंग्रेज आक्रांता थे, लुटेरे थे, हत्यारे थे। उन्होंने हमारे देश पर राज करने का अधिकार बल और छलपूर्वक हमसे छीन लिया था। वे व्यापारी बनकर आये थे और हमारी कमजोरियों का लाभ उठाकर हमारे शासक बन बैठे। हम अपनी गलतियों के कारण उनके गुलाम बन गए।  हमारे बीच के ही बहुत सारे लोगों ने अपने पद, प्रतिष्ठा और वैभव की लिप्सा के कारण हमारे दुश्मनों की मदद की। क्रांतिकारी देश की मुक्ति चाहते थे तो यह हमारा अधिकार था। मुक्ति का जो स्वप्न क्रांतिकारियों ने देखा था, उसके लिए संघर्ष के जो रास्ते अपनाये गए थे, वे भी स्पष्ट समझ के साथ अपनाये गए थे। हो सकता है अलग-अलग दलों के क्रांतिकारियों के रास्ते अलग-अलग हों लेकिन सबका ध्येय वाक्य एक ही था। भारत हमारा था, हमारा है, हमारा रहेगा। आक्रांताओं को जाना पडेगा, शांति से नहीं गए तो बलपूर्वक खदेड़ दिया जाएगा। मुक्ति के इस स्वप्न के साथ मुक्त भारत के भी सपने क्रांतिकारियों ने देखे थे। एक भारत, जहाँ सब बराबर हों, सबको विकास के सारे अधिकार हों, जाति या सम्प्रदाय को लेकर कोई भेदभाव न हो, हर नागरिक मनुष्य की तरह समझा जाए, लोक की सत्ता हो और सत्ता में लोक हो। कोई अधिपति या भाग्यविधाता न बने। कोई शेरशाह न हो, कोई शाह न हो, कोई तानाशाह न हो। आज हम आजाद हैं लेकिन इस मुक्तिकामना से संघर्ष करने वाले, बलिदान देने वाले क्रांति योद्धाओं के सपने कहाँ गए ? उनका क्या हुआ? गरीबों का भाग्य क्यों नहीं बदला ? कुछ ख़ास लोगों की मुट्ठी में ही सारी समृद्धि कैसे चली गयी ? नेता और राजनीतिक दल कब जन गण मन अधिनायक बन गए ? 

दूसरे अध्याय में देश को आजादी दिलाने वाले क्रांतिकारियों की बलिदान कथाओं का समावेश है और तीसरे अध्याय में आजादी के बाद देश के बदलते राजनीतिक वात्याचक्र और देश की लम्बी पतन-कथा के विकराल दौर का आख्यान है। सभी लेखों की चर्चा करना तो बहुत कठिन और असाध्य काम होगा। यह काम पाठकों पर ही छोड़ना चाहिए लेकिन इस पुस्तक में कहीं-कहीं जो अनबुझी चिंगारियां हैं, उन पर उंगली रखने की कोशिश मैं जरूर करूंगा, भले ही मेरी उंगली जल जाय।  यह इसलिए कि  अगर हम सबको देश को रास्ते पर लाना है तो अपनी उंगलियां ही नहीं अपने दिमाग और दिल भी क्रान्तिकाल की जलती हुई मशालों की आंच पर रखना होगा, जरूरत हुई तो जलाना भी होगा।  

‘गाँधी और जिन्ना’ लेख का आरम्भ करते हुए लेखक जिस तरह ध्यान खींचता है, वह अवर्ण्य है, ‘गांधीजी ने कहा, ‘जब आप बताएँगे कि प्रस्ताव मेरा है तो जिन्ना कहेंगे, ‘धूर्त गांधी।’ माउंटबेटन की टिप्पणी थी, ‘और मैं समझता हूँ जिन्ना सही होंगे।’ विभाजन को रोकने का यह गांधी का अंतिम प्रयास था जो कामयाब नहीं हुआ। जिन्ना अंग्रेजों के रहते पाकिस्तान हासिल कर लेना चाहते थे।  विभाजन उनकी जिद  थी।  गांधीजी का प्रस्ताव था कि कांग्रेस द्वारा चलाई जा रही सरकार लीग को सौंप दी जाए पर देश एक रहे। राज खन्ना लिखते हैं, अंततः विभाजन स्वीकार करना पड़ा लेकिन यह विभाजन शांति की उम्मीद में स्वीकार किया गया। ‘अकथनीय पीड़ा के साथ नाउम्मीदी हाथ लगी। साथ-साथ आगे की नेहरू की उम्मीद एक बार फिर टूटनी और गलत साबित होनी थी। उनकी आशंका सच होनी थी।  तभी से जारी है , युद्ध.. युद्ध। .. और युद्ध।’ ‘मौलाना आजाद ने कहा था’ एक बहुत ही महत्वपूर्ण लेख है। आरम्भ देखिये, ‘तुम्हें याद है ?’ मौलाना आजाद ने सवाल किया सामने मौजूद भारी भीड़ से। उदास चेहरों की मायूस निगाहें एकटक उनसे मुखातिब थीं।  इस भीड़ का बड़ा हिस्सा वह था, जिसने उन्हें सुनना तो दूर, बरसों-बरस उन्हें जलील करने का कोई मौका छोड़ा नहीं था। गद्दार। दलाल। बिकाऊ। .. आज वही भीड़ उन्हें सुनने को बेताब थी।  मौलाना आजाद बोल रहे थे, ‘मैंने तुम्हें पुकारा और तुमने मेरी जबान काट ली। मैंने कलम उठाई और तुमने मेरे हाथ कलम कर दिए….. मेरा अहसास जख्मी है और  मेरे दिल को सदमा है।  सोचो तो सही तुमने कौन सी राह अख्तियार की ? कहाँ पहुंचे और अब कहाँ खड़े हो ? क्या ये खौफ की जिंदगी नहीं ? और क्या तुम्हारे भरोसे में फर्क नहीं आ गया है ? ये खौफ तुमने खुद ही पैदा किया है।.. अजीजों तब्दीलियों के साथ चलो।  ये न कहो कि इसके लिए तैयार नहीं थे बल्कि तैयार हो जाओ। सितारे टूट गए लेकिन सूरज तो चमक रहा है। उससे किरण मांग लो और उस अंधेरी राहों में बिछा दो, जहाँ उजाले की सख्त जरूरत है।’ जाहिर है वह भीड़ उन मुसलमानों की थी, जो भारत में रहने के बावजूद एक जड़ आशंका से, भय से ग्रस्त थे।  

‘सरदार पटेल और कश्मीर’ शीर्षक लेख में वे लिखते हैं, ‘कश्मीर को लेकर नेहरू और पटेल में मतभेद थे। सरदार खामोश नहीं रहे।  माउंटबेटन के साथ नेहरू की प्रस्तावित लाहौर यात्रा का उन्होंने कड़ा विरोध किया और कहा, जब हम सही हैं तो जिन्ना के सामने रेंगने क्यों जाएँ ? देश की जनता हमें क्षमा नहीं करेगी।’ सरदार के कड़े विरोध के कारण नेहरू को वह यात्रा स्थगित करनी पडी। एक अन्य लेख में राज खन्ना जी लिखते हैं कि ‘सरदार पटेल की मुस्लिमों को लेकर सोच पर भी सवाल उठते रहे हैं। उन्हें मुस्लिम विरोधी माना गया। दिलचस्प है कि संविधान सभा की अल्पसंख्यक विषयक सलाहकार समिति के अध्यक्ष पटेल ही थे।  इस समिति की सर्वसम्मति से की गयी सिफारिशों में अल्पसंख्यकों की भाषा, लिपि और संस्कृति की रक्षा की गारंटी शामिल थी। पटेल ने 6 जनवरी 1948 को लखनऊ में कहा, ‘मैं मुसलमानों का सच्चा दोस्त हूँ। फिर भी मुझे उनका सबसे बड़ा दुश्मन बताया जाता है। मैं उन्हें बताना चाहता हूँ कि भारत के प्रति निष्ठा की महज घोषणा से बात नहीं बनेगी।  उन्हें इसका व्यावहारिक सुबूत देना होगा।’ ‘काकोरी के शहीद’ में वे लिखते हैं कि  फांसी के फंदे की ओर बढ़ते हुए, अशफाक उल्ला खान ने कहा था, ‘मेरे हाथ इंसानी खून से नहीं रंगे हैं। मुझ पर जो इल्जाम लगाया जा रहा है, वह गलत है। खुदा के यहां मेरे साथ इन्साफ होगा।’ उनकी आख़िरी ख्वाहिश बस इतनी थी, ‘कुछ आरजू नहीं है, है आरजू तो ये। रख दे कोई जरा सी खाके वतन कफ़न में।’ इसी तरह फांसी के फंदे पर चढने से पहले रामप्रसाद बिस्मिल ने अपने शेर पढ़े, ‘मालिक तेरी रजा रहे और तू ही तू रहे। बाकी न मैं रहूँ न मेरी आरजू रहे।  जब तक कि तन में जान रगों में लहू रहे, तेरा ही जिक्र या तेरी ही जुस्तजू रहे। अब न अगले बलबले हैं और न अरमानों की भीड़। एक मिट जाने की हसरत बस दिले बिस्मिल में हैं।’  ‘असेम्बली बम विस्फोट: ताकि बहरे सुन लें’ में लिखा गया है कि भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने असेम्बली में बेम फेंके थे। क्यों फेंका, इस बारे में दोनों ने अदालत में बयान देने का फैसला किया।  वे बोले,  ‘इंग्लैण्ड को सपनों से जगाना जरूरी था। हमने असेम्बली चैम्बर के फर्श पर उन लोगों की ओर से  विरोध दर्ज करने के लिए बम फेंका, जिनके पास अपनी तक़लीफ़ें सामने लाने का कोई जरिया नहीं था।  हमारा एकमात्र उद्देश्य बहरे कानों तक अपनी आवाज पहुँचना और ढीठ लोगों को समय रहते चेतावनी देना था।’ 

यह सपनों भरी पुस्तक है।  नेताजी सुभाष चंद्र बोस, चापेकर बंधु, मदनलाल ढींगरा, जतींद्र दास, दुर्गा भाभी, भगवती चरण बोहरा, उधम सिंह, चंद्रशेखर, पुरुषोत्तम दास टंडन, आचार्य नरेंद्र देव, लाल बहादुर शास्त्री, गणेश शंकर विद्यार्थी, दीन दयाल उपाध्याय, राम मनोहर लोहिया, जय प्रकाश नारायण और इंदिरा गाँधी तक को इस पुस्तक में शामिल किया गया है। बाद में जनता सरकार का आगमन, चंद्रशेखर का एक बड़े नेता के रूप में उदय और क्रांति से उपजी व्यवस्था के पतन तक की इस पुस्तक में चर्चा की गयी है। आपातकाल को याद करते हुए जेपी आंदोलन और इस बहाने एक बार फिर आजादी के आंदोलन की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि के जागरण की बात कही गयी है। स्वाधीनता के मूल्य को समझने का यह एक बड़ा अवसर था। आज भी आपातकाल के दौरान की आंदोलनकारी ताकतों की पीढ़ी के मन में जेपी की सम्पूर्ण क्रान्ति बसती है।  इसमें कोई दो राय नहीं कि जेपी के बहुत सारे शिष्य भ्रष्टाचार के  दलदल में समा गए लेकिन इससे उस महान नेता की चमक फीकी नहीं पड़ती।  उन पर रामधारी सिंह दिनकर, धर्मबीर भारती और दुष्यंत जैसे बड़े कवि लिखने को प्रेरित हुए थे।दिनकर ने कहा, ‘हाँ, जयप्रकाश है नाम समय की करवट का, अंगड़ाई का, भूचाल बवंडर के ख्वाबों से भरी हुई तरुणाई का।’  भारती के शब्दों में ‘एक बहत्तर साल का बूढ़ा आदमी /अपनी कांपती हुई कमजोर आवाज में /सच बोलता हुआ निकल पड़ा है।’ दुष्यंत कुमार ने लिखा, ‘एक बूढ़ा आदमी है मुल्क में या यूँ कहो, इस अंधेरी कोठरी में एक रोशनदान है।’ आखिरकार जयप्रकाश नारायण द्वारा छेड़े गए आंदोलन ने श्रीमती इंदिरा गांधी की जिद को पराजित किया और उन्हें आपातकाल ख़त्म करना पड़ा। राज खन्ना की यह पुस्तक वर्तमान में एक बार फिर बढ़ते गहरे अँधेरे के इस समय में एक रोशनदान की तरह है। उम्मीद है इसे पढ़कर बहुत सारे नवजवान एक बार फिर रोशनख्याली के साथ हर अँधेरे से जूझने को तैयार मिलेंगे।