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डेस्क। भगत सिंह राजगुरु और सुखदेव के बलिदान दिवस पर आपने उनकी बहादुरी के चर्चे तो सुने ही होंगे। उनकी गौरवगाथा का बखान करने के लिए हिंदी सिनेमा ने भी कई फिल्मों की रचना की है। इसी में से लगभग हर फिल्म में भगत सिंह की फांसी के समय ‘मेरा रंग दे बसंती चोला’ गीत भी आपने सुना ही होगा। अंतिम सीन में आपने देखा होगा कि तीनों स्वतंत्रता सेनानी इंकलाब जिंदाबाद बोलते हुए फाँसी को अपने गले लगा लेते हैं। पर क्या आप जानते हैं कि यह गाना सिर्फ एक फिल्मी गाना है? या इसे सच में शहीदों द्वारा गुनगुनाया गया था।

जानिए, इस गीत का इतिहास-

सबसे पहले गीत के इतिहास के बारे में बात करें तो 1927 की वसंत ऋतू में, स्वतंत्रता सेनानियों में से एक ने राम प्रसाद ‘बिस्मिल’ से पूछा कि वह बसंत (वसंत) के मौसम पर एक गीत क्यों नहीं बनाते। तभी बिस्मिल ने अशफाकउल्लाह खान, खत्री, ठाकुर, रोशनी आदि जैसे 18 अन्य क्रांतिकारियों के साथ मिलकर ‘मेरा रंग दे बसंती चोला’ गीत की रचना की।

जेल में गूंजा इंकलाब या रंग दे बसंती चोला…

शहीद भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को जब फांसी दी गई थी, उस समय जेल का क्या माहौल था इसकी पुख्ता जानकारी तो नहीं है पर इसके उपलक्ष में तीन अलग अलग बातें देखने को मिलतीं हैं।  एक कहता है कि उन्होंने ‘इंकलाब जिंदाबाद’ का नारा लगाया और दूसरी के अनुसार,उन्होंने ‘मेरा रंग दे बसंती चोला’ गीत गाया, और अगर तीसरे प्रकरण की माने तो उन्होंने दोनों ही चीजे की। यह देखते हुए कि उस समय जेल में तालाबंदी थी, केवल उनके साथ आने वाले पुलिसकर्मी ही सच्चाई जान सकते थे।