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अटल बिहारी वाजपेयी कविता विशेष:- 

1) पन्द्रह अगस्त का दिन कहता – आज़ादी अभी अधूरी है
सपने सच होने बाक़ी हैं, राखी की शपथ न पूरी है
जिनकी लाशों पर पग धर कर आजादी भारत में आई
वे अब तक हैं खानाबदोश ग़म की काली बदली छाई
कलकत्ते के फुटपाथों पर जो आंधी-पानी सहते हैं
उनसे पूछो, पन्द्रह अगस्त के बारे में क्या कहते हैं
हिन्दू के नाते उनका दुख सुनते यदि तुम्हें लाज आती
तो सीमा के उस पार चलो सभ्यता जहाँ कुचली जाती
इंसान जहाँ बेचा जाता, ईमान ख़रीदा जाता है
इस्लाम सिसकियाँ भरता है,डालर मन में मुस्काता है
भूखों को गोली नंगों को हथियार पिन्हाए जाते हैं
सूखे कण्ठों से जेहादी नारे लगवाए जाते हैं
लाहौर, कराची, ढाका पर मातम की है काली छाया
पख़्तूनों पर, गिलगित पर है ग़मगीन ग़ुलामी का साया
बस इसीलिए तो कहता हूँ आज़ादी अभी अधूरी है
कैसे उल्लास मनाऊँ मैं? थोड़े दिन की मजबूरी है
दिन दूर नहीं खंडित भारत को पुनः अखंड बनाएँगे
गिलगित से गारो पर्वत तक आजादी पर्व मनाएँगे
उस स्वर्ण दिवस के लिए आज से कमर कसें बलिदान करें
जो पाया उसमें खो न जाएँ, जो खोया उसका ध्यान करे।।
2) बाधाएं आती हैं आएं
घिरें प्रलय की घोर घटाएं,
पावों के नीचे अंगारे,
सिर पर बरसें यदि ज्वालाएं,
निज हाथों में हंसते-हंसते,
आग लगाकर जलना होगा।
कदम मिलाकर चलना होगा।
हास्य-रूदन में, तूफानों में,
अगर असंख्यक बलिदानों में,
उद्यानों में, वीरानों में,
अपमानों में, सम्मानों में,
उन्नत मस्तक, उभरा सीना,
पीड़ाओं में पलना होगा।
कदम मिलाकर चलना होगा।
उजियारे में, अंधकार में,
कल कहार में, बीच धार में,
घोर घृणा में, पूत प्यार में,
क्षणिक जीत में, दीर्घ हार में,
जीवन के शत-शत आकर्षक,
अरमानों को ढलना होगा।
कदम मिलाकर चलना होगा।
सम्मुख फैला अगर ध्येय पथ,
प्रगति चिरंतन कैसा इति अब,
सुस्मित हर्षित कैसा श्रम श्लथ,
असफल, सफल समान मनोरथ,
सब कुछ देकर कुछ न मांगते,
पावस बनकर ढलना होगा।
कदम मिलाकर चलना होगा।
कुछ कांटों से सज्जित जीवन,
प्रखर प्यार से वंचित यौवन,
नीरवता से मुखरित मधुबन,
परहित अर्पित अपना तन-मन,
जीवन को शत-शत आहुति में,
जलना होगा, गलना होगा।
क़दम मिलाकर चलना होगा।
3) भरी दुपहरी में अँधियारा
सूरज परछाई से हारा,
अंतरतम का नेह निचोड़े, बुझी हुई बाती सुलगाएँ।
आओ फिर से दिया जलाएं।
हम पड़ाव को समझें मंजिल,
लक्ष्य हुआ आँखों से ओझल,
वर्तमान के मोहजाल में, आने वाला कल न भुलाएँ।
आओ फिर से दिया जलाएं।
आहूति बाकी यज्ञ अधूरा, 
अपनों के विघ्नों ने घेरा,
अंतिम जय का वज्र बनाने, 
नव दधीचि हड्डियाँ गलाएँ।
आओ फिर से दिया जलाएँ।
4) कौरव कौन
कौन पांडव,
टेढ़ा सवाल है|
दोनों ओर शकुनि
का फैला
कूटजाल है|
धर्मराज ने छोड़ी नहीं
जुए की लत है|
हर पंचायत में
पांचाली
अपमानित है|
बिना कृष्ण के
आज
महाभारत होना है,
कोई राजा बने,
रंक को तो रोना है|