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भाई, दो मिनट का समय दो। एक बूढ़ी आंटी आने वाली हैं। वह ज्यादा नहीं चल सकतीं। उन्हें बिठाते ही कार हटा दूंगा।

नहीं साहब। ये गेट है। अभी प्रेसीडेंट ने देख लिया तो बहुत गाली देगा। पैसा तो आठ हजार ही देता है। जरा सा कुछ हुआ नहीं कि गाली चालू!

उसके ऐसा कहते ही मैंने गाड़ी वहां से हटा ली। उसकी भाषा यह स्पष्ट कर चुकी थी कि वह बिहार का था। मैंने गाड़ी कुछ दूर खड़ी की। लौटकर वापस आया। गार्ड से दुबारा बातचीत शुरू की। वह बिहार का ही था। मध्यप्रदेश का होता तब भी मेरे विचार समान ही रहते।

उसने जो भी कहा, वह केवल उसका कष्ट नहीं था। एक विशाल शहरी आबादी की हजारों लाखों सोसाइटीज और रिहायशी इलाकों में काम करने वाले सिक्योरिटी गार्ड की सामूहिक त्रासद कथा थी। अधिकांश सिक्योरिटी गार्ड सात आठ नौ हजार की पगार पर बारह घंटे की ड्यूटी करते हैं। अवकाश उनके जीवनाभ्यास में मृग मरीचिका है। इन बारह घंटों में अनगिन लोग उसे सुना सकते हैं, डांट सकते हैं। लगभग सभी लोग उसके स्वामी हैं। वह इस अखिल विश्व का ही भृत्य है। सोसायटी के लोगों की छोड़िए, वह तो किसी आगंतुक की आग भी झेलता है। कोई भी उसे गरिया सकता है। कोई भी नसीहत दे सकता है। वह सबसे सरल प्राप्य और वेध्य है। उसका कोई आत्माभिमान नहीं। उसकी अपनी कोई गरिमा नहीं। संभवतः वर्ष का कोई ऐसा दिन नहीं, जब उसे झिड़कियां उपदेश न सुनने पड़ते हों।

ऊपर जिस बिहारी गार्ड से मेरा छोटा सा संवाद हुआ था, वह डीडीए की सोसाइटी के किसी एक खंड के मुख्य द्वार पर बैठता है। वैसे ही सैकड़ों हजारों फैले हुए हैं। लगभग छह बरस पहले मैं जिस सोसाइटी में रहा करता था, वहां गेट पर तैनात बुजुर्ग गार्ड से दिल्ली के एक स्थानीय महानुभाव ने छोटी सी बात पर विकट उद्दंडता की थी। उस लंपट ने बुजुर्ग और अत्यंत भद्र व्यक्ति से ऐसा गाली-गलौज किया कि मुझसे रहा न गया। मैंने सोसाइटी के प्रेसिडेंट को बुलवा कर उस आदमी की खूब इज्जत उतरवाई। और वही दिल्ली वाला कुछ देर के बाद मुझे पास के मॉल में चखने और सिगरेट की दुकान चलाता हुआ दीख गया। तब वह कुछ निर्लज्जता से हंसते हुए मेरी ओर देख रहा था।

अच्छे और बुरे लोग तो हर जगह होते हैं। सभी सिक्योरिटी गार्ड्स अच्छे ही नहीं होते। कुछ बदमाश भी होते हैं। लेकिन बदमाश गार्ड्स की संख्या बहुत कम होती है। अधिकांश तो निरीह, आर्थिक रूप से टूटे हुए और हमारी कृपाओं के पात्र भर होते हैं। उनसे गाली गलौज करना, या तुम तड़ाक की भाषा में बोलना, कभी भी उनकी इज्जत उतार देना अमानवीय, अरुचिकर और पीड़ादायी है।

दो साल पहले मेरी सोसायटी में कुछ गार्ड्स जाड़े की शाम को अलाव जलाते थे। उन्हें कहीं से पुरानी लकड़ियां मिल गई थीं। मैं जब भी शाम को बाहर से लौटता, एक बुजुर्ग भोजपुरी में मुझसे कहते; आईं हजूर! मुझे लज्जा होती थी। वह कुर्सी आगे बढ़ाते और मैं चुपचाप कुर्सी का प्रस्ताव ठुकराकर खड़े खड़े आग ताप लेता। आश्चर्य यह कि लगभग हर शाम वह कुर्सी आगे बढ़ाते, हर शाम मैं हंसकर मना कर देता लेकिन कुर्सी आगे बढ़ाने का सिलसिला कभी थमता नहीं था।

वह तुमसे क्या उम्मीद करता है? तुम उसकी आर्थिक सहायता नहीं कर सकते। उसकी तकलीफें कम नहींं कर सकते। उसे छुट्टियां नहीं दिला सकते। कम से कम उस से आप कहकर तो बात करो! उसे मनुष्य होने का भान तो हो! उसे अपनी सारी विवशताओं और असहाय, अशक्त अनुभव करने की वेदनाओं के साथ थोड़ी सी मुस्कराहट दे दो! अच्छी भाषा, या अच्छे जेस्चर से तुम्हारा कुछ घट नहीं जाता। उसका मरता हुआ मन क्षण भर के लिए जी उठता है। उस क्षण की प्रसन्नता या साधारण से विश्वास से वह कई पहर के ताप सह सकता है। लेकिन कौन सुने! यहां सभी सम्राट हैं। उलटी दिशा से गाड़ी चलाकर आने वाला भी आपको ही आंख दिखलाकर जाता है तो वह किसी सिक्योरिटी गार्ड का सम्मान करेगा!