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झूँठी है हुमायूँ और हिन्दू रानी कर्णावती की कहानी,रक्षाबंधन का पुराणों के समय से है महत्त्व

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हिन्दू धर्म में रक्षाबंधन को एक अत्यंत ही पवित्र पर्व माना जाता है,इस दिन बहनें अपने भाइयों की दाहिनी कलाई पर एक रक्षा सूत्र बाँधती हैं और उनसे आजीवन अपनी रक्षा करने का वचन भी लेती हैं और भाई खुशी खुशी अपनी बहनों को इस वचन को पूरा करने का विश्वास दिलाते हैं इसी रक्षासूत्र बंधन के पवित्र पर्व को भारतवर्ष में रक्षाबंधन के नाम से भी जाना जाता है I हर वर्ष श्रावण मास की पूर्णिमा को ये पर्व मनाया जाता है इस वर्ष ये पर्व 22 अगस्त रविवार के दिन मनाया जायेगा I इस दिन को भाई-बहन के आपसी प्रेम का प्रतीक भी माना जाता है I

वर्तमान में रक्षाबंधन की कहानी को आम-जनमानस मुग़ल बादशाह हुमायूँ और चित्तौड़ की महान हिन्दू रानी कर्णावती से जोड़कर सुनता और पढता आया है जिसमें चित्तौड़ की हिन्दूरानी कर्णावती ने दिल्ली के मुगल बादशाह हुमायूं को अपना भाई मानकर उस मुग़ल के पास अपनी रक्षा के लिए राखी भेजी थी और हुमायूं ने रानी कर्णावती की राखी स्वीकार की और समय आने पर रानी के सम्मान की रक्षा के लिए गुजरात के बादशाह से युद्ध किया किन्तु ये कहानी पूरी तरह से मनगढ़ंत और कपोलकल्पित है और न ही इस घटना का कोई भी लिखित ऐतिहासिक साक्ष्य उपलब्ध नहीं है वर्तमान समय में ये सिद्ध हो चुका है कि इस तरह की कोई भी घटना हुई ही नहीं थी I  

पुराणों से जुडी है रक्षाबंधन की कथा 
 पौराणिक कथाओं में रक्षाबंधन से सम्बंधित कई कथायें मिलती हैं हिन्दू मान्यताओं के अनुसार एक समय माता लक्ष्मी ने  दैत्य राजा बलि को अपना भाई बनाकर भगवान विष्णु को उनके दिए गए वचन से ‘मुक्त’ कराया था। 
माता लक्ष्मी ने सबसे पहले राजा बलि को बांधी थी राखी

पुराणों में वर्णन है कि प्रसिद्ध विष्णुभक्त, महान दानवीर, विरोचन के पुत्र दैत्यराज बलि एक महान् योद्धा थे। वे वैरोचन नामक साम्राज्य के सम्राट थे जिसकी राजधानी महाबलिपुर थी। इन्हें परास्त करने के लिए ही भगवान् विष्णु का वामनावतार हुआ था। समुद्रमंथन से प्राप्त रत्नों के लिए जब देवासुर संग्राम छिड़ा और दैत्यों एवं देवताओं के बीच युद्ध हुआ तो दैत्यों ने अपनी मायावी शक्तियों का प्रयोग करके देवताओं को युद्ध में परास्त कर दिया, उसके बाद  महाबलशाली दैत्यराज बलि 100 यज्ञ पूरा करके स्वर्ग पर आधिपत्य करने का प्रयास करने लगे, राजा बलि ने विश्वजित्‌ और शत अश्वमेध यज्ञों को करके तीनों लोकों पर अधिकार जमाने का प्रयास किया और अंत में संपूर्ण विजय के लिए दैत्यराज बलि अपना अंतिम अश्वमेघ यज्ञ का समापन कर रहे थे, तब ये देखकर स्वर्गाधिपति इंद्र डर गए। 

वे भगवान विष्णु के पास गए और उनसे अपनी व स्वर्ग की  रक्षा का निवेदन किया। तब भगवान विष्णु ने वामन अवतार धारण किया और दान के लिए वामन रूप में ब्राह्मण वेशधारी विष्णु दैत्यराज बलि के समक्ष उपस्थित हुए,क्योंकि यदि राजा बलि का यह यज्ञ भी पूर्ण हो जाता तो पृथ्वी पर धर्म समाप्त होने की आशंका थी I भगवान् विष्णु ने राजा बलि से दान माँगा जिस पर राजा बलि ने बड़े घमंड के साथ कहा कि इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में ऐसा क्या है जो मैं तुम्हें नहीं दे सकता तीनों लोकों का आज मैं एकमात्र राजा हूँ अतः जो भी तुम्हे उचित लगे मांग लो,मैं तुम्हें वचन देता हूँ कि जो भी तुम मांगोगे मैं वो अवश्य ही तुम्हें दे दूंगा I 

वामन वेश में भिक्षुक बन कर आये भगवान विष्णु को दैत्यराज बलि के गुरु शुक्राचार्य ने पहचान लिया और राजा बलि को  सावधान भी किया किन्तु महादानी दैत्यराज बलि अपने गुरु के इशारे को समझकर भी उन वामन वेशधारी भगवान् विष्णु को दान देने से विमुख न हुआ। बलि के वचन देने पर वामन भगवान् ने बलि से सिर्फ तीन पग भूमि दान में माँगी,दैत्यराज बलि हँसते हुए बोला- हे ब्राह्मण, तुमने तो बड़ा ही तुच्छ दान माँगा है यदि तुम्हें कुछ मांगना ही था तो हीरे,स्वर्ण या फिर राज्य मांगते,तुम्हारे इन छोटे से पैरों में किंतनी धरती आयेगी जो तुमने सिर्फ तीन पग धरती मांगी I वामन भगवान् ने ये सुनकर तनिक भी विचलित हुए बिना उत्तर दिया कि हे राजा बलि, मैंने तो सुना है कि आप महादानी हैं और इस पूरे ब्रह्माण्ड में आपके समान कोई दानी नहीं है किन्तु आप तो सिर्फ तीन पग धरती मांगने पर ही विचलित हो गये I बलि ने उत्तर दिया, हे वामन देव,यदि आपको ऐसा लगता है तो आप अपने इन नन्हे-नन्हे पैरों से जितनी भी पृथ्वी नाप लेंगे मैं वो सब आपको दे दूंगा I बलि के ऐसा कहते ही वामन भगवान् ने अत्यंत विशाल रूप धारण कर प्रथम दो पगों में पृथ्वी और स्वर्ग को ही नाप लिया और अपने तीसरे पग के लिए बलि से स्थान पूंछा,ये देखकर अचंभित दैत्यराज बलि ने शेष दान के लिए स्वयं अपना मस्तक नपवा दिया । 

दैत्यराज बलि का प्रण और दान के प्रति उनकी इच्छाशक्ति को देखकर भगवान विष्णु दैत्यराज बलि से अत्यंत प्रसन्न हुए और उन्होंने बलि को कोई भी वरदान मांगने के साथ ही उसे पाताल लोक में रहने की आज्ञा दी । भगवान् को प्रसन्न देख राजा बलि ने कहा कि हे प्रभु, पहले आप वचन दें कि जो मैं मांगूंगा, वह आप मुझको प्रदान करेंगे और आप मुझसे छल न करेंगे,भगवान विष्णु ने उनको वचन दिया। तब बलि ने कहा कि वह पाताल लोक में तभी रहेंगे, जब आप स्वयं सदैव मेरी आंखों के सामने प्रत्यक्ष रूप में रहेंगे। यह सुनकर विष्णु भगवान स्वयं बड़ी दुविधा में पड़ गए। उन्होंने सोचा कि राजा बलि ने तो उनको अपना पहरेदार बना दिया। किन्तु भगवान वचनबद्ध थे अतः वो भी पाताल लोक में राजा बलि के यहां रहने लगे। इधर माता लक्ष्मी विष्णु भगवान की प्रतीक्षा कर रही थीं। काफी समय बीतने के बाद भी नारायण नहीं आए। इसी बीच नारद जी ने बताया कि वे तो अपने दिए वचन के कारण राजा बलि के पहरेदार बने हुए हैं। माता लक्ष्मी ने नारद से उपाय पूछा, तो उन्होंने कहा कि आप राजा बलि को अपना भाई बना लें और उनसे रक्षा का वचन लें और बदले में भगवान् को मांग लें ।

तब माता लक्ष्मी ने एक महिला का रूप धारण किया और राजा बलि के पास  रोती-बिलखती  हुई गयीं I एक दीन-हीन दुखियारी महिला को देखकर बलि ने उनके रोने का कारण पूंछा तो माता लक्ष्मी ने कहा कि उनका कोई भाई नहीं है इसीलिए ये संसार उन्हें प्रताड़ित करता है अगर मेरा भी कोई भाई होता तो वो मेरी रक्षा करता I ये सुनकर बलि ने उनको अपनी धर्म बहन बनाने का प्रस्ताव दिया। जिस पर माता लक्ष्मी ने दैत्यराज बलि को रक्षा सूत्र बांधा और आजीवन अपनी रक्षा का वचन लिया । बलि के वचन देने के पश्चात माता लक्ष्मी ने अपने लिए किसी उपहार की मांग की और बलि के वचन देते ही उन्होंने उपहार स्वरुप भगवान विष्णु को मांग लिया। इस प्रकार माता लक्ष्मी ने बलि को रक्षा सूत्र बांधकर भाई बनाया, साथ ही भगवान विष्णु को भी अपने दिए वचन से मुक्त करा लिया। भगवान् ने बलि को दिए वचन से मुक्ति मिलने के बाद प्रसन्न होकर दैत्यराज बलि को अमरता का वरदान भी दिया,हिन्दू मान्यता के अनुसार 8 चिरंजीवियों में दैत्यराज बलि का भी स्थान है  

अश्वत्थामा बलिर्व्यासो हनूमानश्च विभीषण:।
कृप: परशुरामश्च सप्तएतै चिरजीविन:॥
सप्तैतान् संस्मरेन्नित्यं मार्कण्डेयमथाष्टमम्।
जीवेद्वर्षशतं सोपि सर्वव्याधिविवर्जित।।

कृष्ण-द्रौपदी कथा
एक बार भगवान श्रीकृष्ण के हाथ में चोट लग गई तथा खून की धार बह निकली। यह सब द्रौपदी से नहीं देखा गया और उसने तत्काल अपनी साड़ी का पल्लू फाड़कर श्रीकृष्ण के हाथ में बाँध दिया फलस्वरूप खून बहना बंद हो गया। कुछ समय पश्चात जब दुःशासन ने द्रौपदी की चीरहरण किया तब श्रीकृष्ण ने चीर बढ़ाकर इस बंधन का उपकार चुकाया। यह प्रसंग भी रक्षाबंधन की महत्ता को प्रतिपादित करता है।
जनेन विधिना यस्तु रक्षाबंधनमाचरेत।
स सर्वदोष रहित, सुखी संवतसरे भवेत्।।

श्रीकृष्ण ने बतायी रक्षाबंधन की कथा  
एक बार युधिष्ठिर ने भगवान कृष्ण से पूछा- ‘हे अच्युत ! मुझे रक्षाबंधन की वह कथा सुनाइये जिससे मनुष्यों की प्रेतबाधा तथा दुख दूर होता है।  भगवान कृष्ण ने कहा- हे पांडव श्रेष्ठ, एक बार दैत्यों तथा असुरों में भीषण युद्ध छिड़ गया और यह युद्ध लगातार बारह वर्षों तक चलता रहा,असुरों ने देवताओं को पराजित करने के बाद स्वर्ग के राजा इंद्र को भी पराजित कर दिया।
 
ऐसी स्तिथि में देवताओं सहित इंद्र अमरावती नामक पुरी में चले गए। उधर विजेता दैत्यराज ने तीनों लोकों को अपने वश में कर लिया। उसने राजआज्ञा दे दी कि इंद्र कभी भी मेरी सभा में न आयें और देवता व मनुष्य यज्ञ-कर्म न करें,सभी लोग सिर्फ मेरी पूजा करें।
दैत्यराज की इस आज्ञा से यज्ञ-वेद, पठन-पाठन तथा उत्सव आदि समाप्त हो गए। धर्म के नाश के कारण देवताओं का बल दिन-प्रतिदिन घटने लगा। यह देख इंद्र देवताओं के गुरु ब्रहस्पति के पास गए और उनके चरणों में गिरकर निवेदन करने लगे- हे गुरुवर, ऐसी स्तिथि में लगता है कि मुझे यहीं प्राण देने होंगे क्योंकि न तो मैं  कहीं भाग ही सकता हूँ और न ही उस दैत्य के सामने युद्धभूमि में टिक सकता हूँ,अतः आप ही कोई उपाय बताइए। देवगुरु ब्रहस्पति ने इंद्र की करुण वेदना को सुनकर उन्हें रक्षा विधान करने को कहा और पूरे विधि-विधान के साथ श्रावण मास की पूर्णिमा को प्रातःकाल निम्न मंत्र से रक्षा विधान संपन्न किया गया।

लेखक- पं.अनुराग मिश्र “अनु” आध्यात्मिक लेखक व कवि

 
येन बद्धो बलि राजा, दानवेन्द्रो महाबल:
तेन त्वाम् प्रतिबद्धनामि रक्षे माचल माचल:।

इंद्राणी ने श्रावणी पूर्णिमा के पावन अवसर पर उच्च ब्राह्मणों से स्वस्तिवाचन करवा कर रक्षा का सूत्र लिया और इंद्र की दाहिनी कलाई में बाँधकर युद्धभूमि में उस दैत्यराज से लड़ने के लिए भेज दिया। ‘रक्षाबंधन’ के प्रभाव से दैत्य युद्ध भूमि से भाग खड़े हुए और अंततः स्वर्ग के राजा इंद्र की विजय हुई। 

रक्षासूत्र बाँधते समय एक श्लोक और पढ़ा जाता है जो इस प्रकार है-
ओम यदाबध्नन्दाक्षायणा हिरण्यं, शतानीकाय सुमनस्यमाना:।
तन्मSआबध्नामि शतशारदाय, आयुष्मांजरदृष्टिर्यथासम्।।

लेखक- पं.अनुराग मिश्र “अनु”
आध्यात्मिक लेखक व कवि

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