सुबह की नींद ज्यादातर लोगों को प्यारी होती है लेकिन उनके लिए उठना उतना ही मुश्किल होता है। इस नींद को तोड़ने के लिए अलार्म सेट करते हैं। आपने नोटिस किया होगा कि भले ही आप अलार्म में अपनी फेवरिट ट्यून लगा लें लेकिन यह आपको इरिटेट कर देती है। अब वैज्ञानिकों ने पता लगाया है कि आखिर जब हम अलार्म का साउंड सुनते हैं तो हमारे दिमाग पर इसका क्या असर होता है। उनकी इस रिसर्च से स्किट्सफ्रीनिया जैसे मनोरोगों का पता लगाने में भी सहायता मिलेगी। इस तरह की बीमारियों में मरीज कुछ आवाजों के लिए अजीब सा रिस्पॉन्स देते हैं।
नेचर कम्युनिकेशंस में छपी स्टडी में सामने आया कि अलार्म जैसे कार हॉर्न या किसी के चिल्लाने की आवाज रिपीटिव साउंड फ्लक्चुएशंस से बने होते हैं जिनकी फ्रीक्वेंसी 40 और 80 हर्ट्ज होती है।
यह साउंड कुछ लोगों को क्यों नहीं पसंद आते इसे समझने के लिए वैज्ञानिकों ने लोगों को रिऐक्शंस नोट किए। उन्होंने पता लगाने की कोशिश की कि किस हद तक ये आवाजें लोगों को पसंद नहीं आतीं।इन आवाजों से उत्तेजित हुए दिमाग के हिस्सों का अध्ययन किया। उन्होंने हिस्सा लेने वाले लोगों से पूछा कि कब उन्हें साउंड अच्छा लग रहा है और कब बुरा और इसके लिए उन्होंने अलग-अलग फ्रीक्वेंसीज का साउंड सुनाया। हिस्सा लेने वालों के जवाब के आधार पर पता लगा कि बुरे लगने वाले साउंड की अपर लिमिट 130 हर्ट्ज है। इसके ऊपर सुना जाने वाला साउंड सिर्फ एक लगातार चलने वाली आवाज की तरह सुनाई देता है। वैज्ञानिकों के मुताबिक 40 से 80 हर्ट्ज का साउंड लोगों से बर्दाश्त नहीं होता यही फ्रीक्वेंसी अलार्म, इंसानों और बच्चों के चिल्लाने की होती है।
अलार्म में यही रिपीटीटिव फ्रीक्वेंसीज होती हैं जो दर्शाती हैं कि अटेंशन की जरूरत है। वैज्ञानिकों ने बताया कि 40 से 80 हर्ट्ज की फ्रीक्वेंसी में दिमाग का वह हिस्सा ऐक्टिवेट नहीं होता जो सामान्य आवाज में होता है बल्कि ज्यादा अडवांस्ड हिस्सा ऐक्टिवेट हो जाता है। यह बात भी इंट्रेस्टिंग है कि अलार्म में काफी पहले से यह फ्रीक्वेंसी इस्तेमाल होती आ रही है। वैज्ञानिकों ने बताया कि इन फ्रीक्वेंसीज पर जरूर कुछ होता है औऱ कई बीमारियों जैसे अल्जाइमर्स, ऑटिजम और स्किट्सफ्रीनिया में दिमाग 40 हर्ट्ज पर अजीब रिस्पॉन्स देता है।