भारत में कोयले से बिजली उत्पादन में कमी लाने की चुनौतियाँ और अवसर
यह लेख वैश्विक स्तर पर ऊर्जा उत्पादन में हो रहे बदलाव और विशेष रूप से भारत में कोयले के उपयोग को कम करने की चुनौतियों और अवसरों पर केंद्रित है। ब्रिटेन के कोयला आधारित बिजली संयंत्रों को बंद करने के अनुभव से सीख लेते हुए, लेख भारत के विशिष्ट संदर्भ में एक व्यापक और न्यायसंगत संक्रमण की आवश्यकता पर प्रकाश डालता है।
ब्रिटेन का कोयला मुक्त भविष्य: एक अध्ययन
ब्रिटेन का कोयले से तौबा: एक ऐतिहासिक सफ़र
ब्रिटेन का अंतिम कोयला आधारित बिजली संयंत्र बंद होने के साथ, वैश्विक स्तर पर ऊर्जा उत्पादन में एक बड़ा बदलाव आया है। यह बदलाव आसान नहीं रहा है, जैसा कि अक्सर प्रस्तुत किया जाता है। 1952 के लंदन के “ग्रेट स्मॉग” घटना ने पर्यावरण कानूनों के निर्माण को गति दी, जिसके परिणामस्वरूप 1956 का स्वच्छ वायु अधिनियम बना और 70 वर्षों तक चलने वाली एक लंबी प्रक्रिया शुरू हुई। इसमें भू-राजनीतिक, पर्यावरणीय, आर्थिक और सामाजिक दबाव शामिल थे। 1965 में उत्तरी सागर में प्राकृतिक गैस की खोज और शीत युद्ध के दौरान सोवियत संघ से कोयले के आयात को कम करने की इच्छा ने कोयले से दूर जाने की प्रक्रिया को तेज किया। 1980 के दशक के मध्य में मार्गरेट थैचर सरकार द्वारा लगभग 20 खानों को बंद करने के फैसले के परिणामस्वरूप ब्रिटेन के कई क्षेत्रों में गरीबी आई। यह महत्वपूर्ण है कि ब्रिटेन के अनुभव से सीखते हुए, विभिन्न देशों के लिए अलग-अलग रणनीतियों की आवश्यकता पर जोर दिया जाए।
ब्रिटेन से सबक: योजनाबद्ध परिवर्तन और नौकरी पुनर्वास
ब्रिटेन ने कोयले का उपयोग 2025 तक समाप्त करने का संकल्प लेने के बाद एक व्यापक परिवर्तन किया। इसमें न केवल कोयला उद्योग के कर्मचारियों को नई नौकरियों के अवसर प्रदान करने, बल्कि कोयले पर आश्रित क्षेत्रों और समुदायों के पुनर्विकास पर भी ध्यान केंद्रित किया गया। इसके लिए इंजीनियरिंग, भारी मशीनरी संचालन और रखरखाव जैसे क्षेत्रों में पुनर्प्रशिक्षण कार्यक्रम, प्रारंभिक सेवानिवृत्ति और छंटनी भुगतान, नए शिक्षा और शिक्षुता कार्यक्रम और समुदायों और क्षेत्रों के पुनर्विकास पर ध्यान केंद्रित किया गया। हालांकि कुछ चुनौतियां बनी हुई हैं, जैसे कि टैल्बोट स्टील संयंत्र में विरोध प्रदर्शन, लेकिन धीरे-धीरे कोयले के उपयोग में कमी आने से ब्रिटेन ने कोयला उन्मूलन में सफलता पाई है।
भारत की चुनौतियाँ और अवसर
भारत में कोयले का महत्व: ऊर्जा उत्पादन का मेरुदंड
भारत 2023 में लगभग 2.9 गीगाटन कार्बन उत्सर्जित करने वाला तीसरा सबसे बड़ा देश है, लेकिन प्रति व्यक्ति उत्सर्जन अभी भी वैश्विक औसत से कम है। भारत का पहला कोयला खदान 1774 में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा स्थापित किया गया था। पहला कोयला आधारित बिजली संयंत्र 1920 में हैदराबाद में स्थापित हुआ था। 1956 में मुंबई के पास ट्रॉम्बे बिजली घर के कमीशन होने पर थर्मल बिजली वास्तव में भारत का मुख्य आधार बन गई। भारत के कोयला आधारित बिजली संयंत्रों की औसत आयु लगभग 12 वर्ष है। जबकि भारत ने म्यांमार और श्रीलंका को कोयला निर्यात किया है, लेकिन इसका ज्यादातर उपयोग घरेलू बिजली उत्पादन में हुआ है। वर्तमान में भारत की 70% ऊर्जा कोयले से उत्पन्न होती है। 350 से अधिक चालू खदानें हैं और लगभग 120 नई खदानों की योजना बनाई गई है। कोयला क्षेत्र में लाखों लोगों को रोजगार मिलता है।
भारत के लिए एक रणनीतिक योजना की आवश्यकता
भारत ने 2070 तक शून्य उत्सर्जन का लक्ष्य रखा है और 2050 तक अपनी ऊर्जा की आधी जरूरतों को नवीकरणीय ऊर्जा से पूरा करने का वादा किया है। ब्रिटेन की तुलना में भारत को अधिक समय मिला है, लेकिन उसे भी एक व्यापक योजना की जरूरत है जिसमें बिजली संयंत्रों को बंद करने की समय-सीमा, क्षेत्रीय पुनर्विकास कार्यक्रम और खनिकों और बिजली संयंत्र कर्मचारियों के पुनर्प्रशिक्षण को शामिल किया जाए। भारत के उन क्षेत्रों पर ध्यान देने की आवश्यकता है, जो ऐतिहासिक रूप से कोयले पर निर्भर रहे हैं और अब भी गरीबी से जूझ रहे हैं।
समाधान और आगे का रास्ता
भारत ब्रिटेन के अनुभवों से कई सीख ले सकता है। एक व्यापक, पारदर्शी और पूर्व नियोजन अभियान एक समावेशी और न्यायसंगत संक्रमण को तेज कर सकता है। इसमें नवीकरणीय ऊर्जा में निवेश, कोयला क्षेत्र के कार्यबलों के पुनर्प्रशिक्षण और क्षेत्रीय विकास पर ध्यान देना होगा। इस प्रक्रिया में समुदायों और क्षेत्रों को शामिल करना अत्यंत महत्वपूर्ण है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि संक्रमण न्यायसंगत और सहभागी हो।
मुख्य बिंदु:
- ब्रिटेन ने कोयले का उपयोग धीरे-धीरे कम करते हुए एक सफल संक्रमण किया।
- भारत के लिए कोयला अभी भी ऊर्जा उत्पादन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है, और इसका असर लोगों की आजीविका और अर्थव्यवस्था पर पड़ता है।
- भारत को कोयले का उपयोग कम करने के लिए एक व्यापक और पूर्व नियोजन युक्त योजना बनाने की आवश्यकता है।
- न्यायसंगत और समावेशी संक्रमण के लिए समुदायों और क्षेत्रों की भागीदारी आवश्यक है।