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नेत्रदान को बढ़ावा देने के लिए भारत सरकार ने एक नया कदम उठाया है, जिससे देश में नेत्रदान की कमी को दूर करने में मदद मिल सकती है। यह कदम मानव अंग प्रत्यारोपण अधिनियम, 1994 में संशोधन करके उठाया गया है जिससे अस्पतालों में मरने वाले सभी मरीजों से बिना परिवार की सहमति के कॉर्निया निकाले जा सकेंगे। इस पहल से उन लोगों को नई रोशनी मिल सकती है जिन्हें नेत्रदान की सख्त जरूरत है। हालाँकि, इस पहल के कई पहलू हैं जिन पर विचार करने की आवश्यकता है।

कॉर्निया दान में आ रही चुनौतियाँ और सरकार का नया कदम

भारत में नेत्रदान की भारी कमी है, केवल 50% ज़रूरत ही पूरी हो पाती है। इस कमी के कई कारण हैं, जिसमें जागरूकता की कमी, धार्मिक मान्यताएँ और परिवारों द्वारा सहमति देने में अनिच्छा शामिल हैं। परम्परागत रूप से, नेत्रदान के लिए परिवार की सहमति आवश्यक थी, जिसके परिणामस्वरूप कई कॉर्निया व्यर्थ चले जाते थे क्योंकि सहमति प्राप्त करने में देरी हो जाती थी। सरकार द्वारा प्रस्तावित संशोधन इस समस्या का समाधान करने का प्रयास है। यह एक “प्रत्याशित सहमति” मॉडल प्रस्तुत करता है, जहाँ सभी व्यक्तियों को मृत्यु के बाद कॉर्निया दानकर्ता माना जाएगा, जब तक कि उन्होंने जीवित रहते हुए अपना विरोध दर्ज नहीं करवाया हो।

चुनौतियों का सामना

इस प्रस्तावित संशोधन के अपने निहित खतरे भी हैं। कुछ लोग अपनी स्वतंत्रता और निर्णय लेने के अधिकार को कम होने से संबंधित चिंताएँ व्यक्त कर सकते हैं। पारदर्शिता बनाए रखना और किसी भी संभावित दुरुपयोग से बचने के लिए इस प्रक्रिया को अच्छी तरह से रेगुलेट करना बेहद जरूरी है।

प्रत्याशित सहमति मॉडल की व्यावहारिकता और चुनौतियाँ

“प्रत्याशित सहमति” मॉडल कई देशों में सफल रहा है, लेकिन भारत में इसका सफल कार्यान्वयन कई चुनौतियों से जुड़ा है। एक बड़ी चुनौती यह है कि जनता में जागरूकता फैलाना और उन्हें इस पहल से अवगत कराना। लोगों को समझाने की ज़रूरत है कि कॉर्निया निकालने से मृतक के चेहरे पर कोई बुरा प्रभाव नहीं पड़ता और इससे शव परीक्षण के निष्कर्ष पर भी कोई फर्क नहीं पड़ता।

जागरूकता अभियान की आवश्यकता

इसके लिए एक व्यापक जागरूकता अभियान चलाया जाना आवश्यक होगा जिसमे प्रिंट मीडिया, सोशल मीडिया और अन्य माध्यमों का इस्तेमाल किया जा सके। यह अभियान सटीक सूचना और सामान्य भ्रांतियों का समाधान देने पर केंद्रित होना चाहिए। इसके साथ ही अस्पतालों और स्वास्थ्य कर्मचारियों को इस प्रक्रिया के सही कार्यान्वयन के लिए उचित प्रशिक्षण प्रदान करना होगा।

नैतिक एवं कानूनी पहलु

इस मॉडल को लागू करने से पहले, नैतिक एवं कानूनी चिंताओं को अच्छी तरह से समझना और उन्हें दूर करना बेहद आवश्यक है। यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि इस व्यवस्था का दुरूपयोग ना हो और इसमें पारदर्शिता बनी रहे। सभी हितधारकों से विचार विमर्श करना होगा, जिसमें चिकित्सा पेशेवर, नैतिकताविद और जनता भी शामिल है।

प्रशिक्षण, बुनियादी ढांचा और मानव संसाधन

इस नई पहल की सफलता के लिए कॉर्निया प्राप्ति और प्रबंधन में प्रशिक्षित चिकित्सा पेशेवरों और तकनीशियनों की आवश्यकता होगी। देश भर के मेडिकल कॉलेजों और अस्पतालों में आँख प्रत्यारोपण के लिए प्रशिक्षण अनिवार्य होना चाहिए। अच्छे बुनियादी ढांचे और पर्याप्त मानव संसाधन की भी आवश्यकता होगी ताकि इस पहल का कुशलतापूर्वक कार्यान्वयन किया जा सके।

आँख बैंक और कर्मचारियों की संख्या में बढ़ोतरी

नेत्रदान कार्यक्रम की सफलता के लिए पर्याप्त संख्या में आँख बैंकों की भी आवश्यकता होगी, साथ ही आँख दान परामर्शदाताओं की भी। आँख बैंकों की सुविधाओं को और बेहतर करने के लिए ठोस उपाय किए जाने चाहिए।

निष्कर्ष: एक कठिन, पर महत्वपूर्ण कार्य

यह पहल, हालाँकि, चुनौतियों से भरी हुई है, लेकिन नेत्रदान कार्यक्रम को बढ़ावा देने में बहुत कारगर साबित हो सकती है। इस प्रक्रिया में पारदर्शिता और नैतिकता बनाए रखना सर्वोच्च महत्व का है। ज़रूरी है कि इस पहल के सकारात्मक और नकारात्मक पहलुओं का सावधानीपूर्वक आकलन किया जाए, इसके व्यावहारिक कार्यान्वयन पर ध्यान दिया जाए और इसके नैतिक निहितार्थों का ध्यान रखते हुए आगे बढ़ा जाए।

मुख्य बातें:

  • भारत में कॉर्निया दान की कमी है।
  • सरकार प्रत्याशित सहमति मॉडल पर विचार कर रही है।
  • मॉडल के सफल कार्यान्वयन के लिए जागरूकता अभियान, उचित प्रशिक्षण, और बुनियादी ढाँचा आवश्यक हैं।
  • नैतिक एवं कानूनी चिंताओं को समझना और उन्हें दूर करना महत्वपूर्ण है।
  • यह पहल, यदि सही तरीके से लागू की गई, तो नेत्रहीनों के लिए एक आशा की किरण साबित हो सकती है।