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पश्चिम बंगाल में स्वास्थ्य सेवा संकट: एक गहन विश्लेषण

भारत में स्वास्थ्य सेवा व्यवस्था की दुर्दशा, विशेष रूप से पश्चिम बंगाल में, एक गंभीर चिंता का विषय है। कोलकाता के आर.जी. कार मेडिकल कॉलेज में एक डॉक्टर की बलात्कार और हत्या के बाद शुरू हुए विरोध प्रदर्शनों ने इस समस्या को राष्ट्रीय स्तर पर उजागर किया है। नौ दिनों से जारी जूनियर डॉक्टरों की भूख हड़ताल और राज्य के अन्य हिस्सों में उनके साथी डॉक्टरों द्वारा समर्थन में किए जा रहे प्रतीकात्मक हड़ताल, इस संकट की गंभीरता को दर्शाते हैं। यह घटना केवल एक व्यक्तिगत त्रासदी नहीं है, बल्कि एक सड़ी-गली स्वास्थ्य प्रणाली का दर्पण है जिसमे डॉक्टरों और स्वास्थ्यकर्मियों की सुरक्षा और कल्याण को गंभीर रूप से उपेक्षित किया गया है। हमें इस संकट के मूल कारणों और इसके व्यापक प्रभावों पर गहराई से विचार करने की आवश्यकता है।

स्वास्थ्य सेवा कर्मियों के कार्यस्थल में असुरक्षा और असंतोष

असुरक्षित कार्य परिस्थितियाँ:

पश्चिम बंगाल में स्वास्थ्य सेवा कर्मियों, खासकर जूनियर डॉक्टरों, की कार्यस्थितियाँ बेहद खराब हैं। वे 36 घंटे की शिफ्ट में काम करने, कम भत्ते मिलने, उचित विश्राम कक्ष या शौचालय न होने, और कार्यस्थल में हिंसा की चपेट में आने जैसी समस्याओं का सामना करते हैं। यह स्थिति केवल पश्चिम बंगाल तक सीमित नहीं है, बल्कि पूरे भारत में स्वास्थ्यकर्मियों की दशा चिंताजनक है। 2018 में इंडियन मेडिकल एसोसिएशन की एक रिपोर्ट में कहा गया था कि भारत में 75% डॉक्टर किसी न किसी समय स्वास्थ्य केंद्रों या अस्पतालों में उत्पीड़न या शारीरिक हिंसा का शिकार हुए हैं। यह स्थिति बुनियादी ढाँचे की कमी, दवाओं की कमी, लंबे कामकाजी घंटे और अत्यधिक राजनीतिक हस्तक्षेप के कारण पैदा हुई है।

असंतोष का प्रकटीकरण:

कोलकाता में जूनियर डॉक्टरों का भूख हड़ताल एक विस्फोट है जो वर्षों से चली आ रही उपेक्षा और असुरक्षा की भावना को दर्शाता है। उनके द्वारा उठाए गए मुद्दे केवल काम के घंटों और भत्तों तक ही सीमित नहीं हैं, बल्कि स्वास्थ्य सेवा प्रणाली में व्यापक सुधार की मांग है। ये डॉक्टर अपनी जान जोखिम में डालकर अपनी आवाज उठा रहे हैं ताकि इस गंभीर समस्या पर ध्यान दिया जा सके और इसके समाधान के लिए ठोस कदम उठाए जा सकें। उनकी मांग केवल बेहतर कामकाजी परिस्थितियाँ ही नहीं बल्कि एक ऐसी प्रणाली की स्थापना है जो रोगियों और स्वास्थ्यकर्मियों दोनों के लिए सुरक्षित और अधिक प्रभावी हो।

सरकारी नीतियों की कमी और निजी क्षेत्र का प्रभुत्व

स्वास्थ्य पर सरकारी व्यय की कमी:

भारत सरकार द्वारा स्वास्थ्य सेवा पर किया जाने वाला व्यय अपने सकल घरेलू उत्पाद (GDP) का केवल 2% है, जबकि चीन और ब्राजील में यह 5-10% है। क्यूबा की स्वास्थ्य सेवा प्रणाली की सफलता इसकी GDP का 14% स्वास्थ्य पर खर्च करने से जुड़ी हुई है। भारत में सरकारी नीतियों में उदासीनता और स्वास्थ्य सेवा के बुनियादी ढांचे की खराब गुणवत्ता के कारण निजी क्षेत्र का तेजी से विकास हुआ है। 1950 में 8% की हिस्सेदारी से बढ़कर 2024 में यह लगभग 70% तक पहुँच गया है। यह असंतुलन स्वास्थ्य सेवा की पहुँच और गुणवत्ता पर विपरीत प्रभाव डालता है।

निजी क्षेत्र की ऊँची कीमतें और स्वास्थ्य बीमा की कमी:

राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के अनुसार, निजी अस्पतालों में इलाज का खर्च सरकारी अस्पतालों की तुलना में सात गुना अधिक है। हालांकि, केवल 14% ग्रामीण और 19% शहरी आबादी के पास स्वास्थ्य बीमा है। इससे लोग आर्थिक बोझ से जूझ रहे हैं और कई बार बेहतर स्वास्थ्य सेवा से वंचित रह जाते हैं। भारत में प्रति व्यक्ति स्वास्थ्य व्यय में कमी आने से व्यक्तियों पर आर्थिक बोझ बढ़ा है। हर 100 रुपये में से 52 रुपये व्यक्ति अपनी बचत से खर्च करता है, जबकि केंद्र और राज्य सरकारें मिलकर केवल 35 रुपये योगदान करती हैं। ब्राजील और क्यूबा में यह आंकड़ा क्रमशः 22 और 8 रुपये है।

सरकारी योजनाओं की सीमाएँ और भ्रष्टाचार

आयुष्मान भारत और स्वस्थ्य साथी जैसी योजनाओं की कमियाँ:

आईआईटी मंडी द्वारा दिसंबर 2023 में प्रकाशित एक अध्ययन में पाया गया कि आयुष्मान भारत और स्वस्थ्य साथी जैसी सरकारी योजनाएँ मुख्य रूप से इनपेशेंट सेवाओं को कवर करती हैं, लेकिन आउटपेशेंट सेवाओं को लगभग कोई कवरेज नहीं देतीं। जबकि आउटपेशेंट सेवाएँ भारत में कुल स्वास्थ्य व्यय का 80% तक होती हैं। इससे ये योजनाएँ प्रभावहीन हो जाती हैं, जो स्वास्थ्य समस्याओं के वास्तविक निदान से कही कम प्रासंगिक साबित होती हैं।

भ्रष्टाचार और स्वास्थ्य सेवा माफ़िया:

कुछ डॉक्टरों, कॉर्पोरेट संस्थाओं, फार्मास्युटिकल कंपनियों और राजनीतिक व्यापारियों के बीच मिलीभगत से भ्रष्टाचार फल-फूल रहा है। ये लोग जरूरतमंद रोगियों का फायदा उठाते हैं। नीति आयोग की एक रिपोर्ट के अनुसार, इलाज की अत्यधिक लागत से हर साल लगभग 7% राष्ट्रीय जनसंख्या गरीबी रेखा के नीचे चली जाती है। पश्चिम बंगाल में यह स्थिति और भी खराब है, जहाँ राज्य सरकार द्वारा स्वास्थ्य पर व्यय GDP का केवल 1% है। देश में सबसे अधिक, उत्तर प्रदेश के बाद, 68% स्वास्थ्य व्यय पश्चिम बंगाल में जेब से किया जाता है। ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल की रिपोर्ट में भी स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र में भ्रष्टाचार की गंभीरता पर ज़ोर दिया गया है।

समाधान और आगे की राह

डॉक्टरों की मांगों पर ध्यान देना:

भारत सरकार को जूनियर डॉक्टरों की शिकायतों और मांगों को गंभीरता से लेना चाहिए और तत्काल आवश्यक कदम उठाना चाहिए। स्वास्थ्य सेवा पर खर्च बढ़ाकर और भ्रष्टाचार को खत्म करने के लिए प्रतिबद्धता दर्शाते हुए कल्याणकारी राज्य के आदर्शों पर चलना होगा। स्वास्थ्य सेवा को व्यापारिक वस्तु न बनाकर एक मौलिक अधिकार के रूप में देखना होगा। पर्याप्त डॉक्टरों की नियुक्ति करना और बुनियादी ढाँचे में सुधार करना अनिवार्य है।

शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा में निवेश बढ़ाना:

शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा में निवेश बढ़ाने की आवश्यकता है। निजीकरण को नियंत्रित करके और सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा प्रणाली को मज़बूत करके यह सुनिश्चित किया जा सकता है कि सभी नागरिकों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा प्राप्त हो।

भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाना:

भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाना बेहद आवश्यक है। पारदर्शिता लाना और जवाबदेही सुनिश्चित करना ज़रूरी है ताकि स्वास्थ्य सेवा में भ्रष्टाचार पर लगाम लगाई जा सके और सभी को गुणवत्तापूर्ण सेवा मिल सके। विभाग के लोगों को व्हिसलब्लोअर के रूप में आगे आने को प्रोत्साहित करने की जरूरत है।

मुख्य बातें:

  • पश्चिम बंगाल में स्वास्थ्य सेवा संकट गंभीर है, जिसमें डॉक्टरों की असुरक्षा, सरकारी नीतियों की कमी, निजी क्षेत्र का प्रभुत्व, भ्रष्टाचार, और कम बजट शामिल हैं।
  • सरकारी योजनाओं में कमियाँ और उच्च उपचार लागत से लोगों को गरीबी का सामना करना पड़ रहा है।
  • स्वास्थ्य सेवा में सुधार के लिए सरकार को स्वास्थ्य पर खर्च बढ़ाना चाहिए, भ्रष्टाचार को रोकना चाहिए, और स्वास्थ्यकर्मियों की सुरक्षा और कल्याण सुनिश्चित करना चाहिए।
  • सभी नागरिकों को गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य सेवा प्रदान करने के लिए एक मज़बूत सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली की आवश्यकता है।