इस साल उत्तराखंड में भारी बारिश के साथ-साथ भूस्खलन की घटनाओं में वृद्धि देखी गई है. यह घटना भूगर्भीय, मौसमी और मानवीय कारकों का मिलाजुला नतीजा है. विशेषज्ञों का मानना है कि जलवायु परिवर्तन से जुड़े वर्षा के पैटर्न में बदलाव, हिमालय की नाजुक पारिस्थितिकी, और मानवीय गतिविधियों का सीधा प्रभाव इन भूस्खलन की घटनाओं में देखा जा रहा है. आइए इन कारकों को विस्तार से समझते हैं.
वर्षा के पैटर्न में परिवर्तन और बढ़ते भूस्खलन
वर्षा के पैटर्न में बदलाव उत्तराखंड में भूस्खलन की घटनाओं के मुख्य कारणों में से एक है. अतीत की तुलना में अब बारिश की तीव्रता और मात्रा में वृद्धि देखी जा रही है, और बारिश के पैटर्न भी बदल गए हैं. अचानक बारिश होने लगती है और वह भी जून और जुलाई के बजाय सितंबर में. यह तीव्र बारिश पहाड़ी इलाकों की मिट्टी को संतृप्त करती है, जिससे ढलान कमजोर हो जाते हैं और भूस्खलन का खतरा बढ़ जाता है.
वर्षा की समय सीमा में बदलाव
विगत वर्षों में, उत्तराखंड में जून और जुलाई के महीनों में भारी वर्षा होती थी. हालाँकि, हाल के वर्षों में, सितंबर के मध्य में तेज बारिश का अनुभव हुआ है, जिसने भूस्खलन के लिए अनुकूल परिस्थितियाँ पैदा कर दी हैं.
स्थानीय स्तर पर वर्षा की तीव्रता
इस साल 13 से 15 सितंबर के बीच तीन दिनों में 102 मिमी बारिश हुई, जो एक सामान्य वर्ष के औसत से काफी अधिक है. यह तीव्र वर्षा, विशेषकर संवेदनशील भू-भाग पर, ढलानों को अस्थिर करने और भूस्खलन ट्रिगर करने में काफी कारगर रही.
नाजुक हिमालयी पारिस्थितिकी तंत्र और मानवीय गतिविधियाँ
उत्तराखंड का हिमालयी क्षेत्र अपनी नाजुक पारिस्थितिकी तंत्र के लिए जाना जाता है. वर्षों से मानवीय गतिविधियों ने इस पारिस्थितिकी को प्रभावित किया है, जिससे भूस्खलन का खतरा बढ़ गया है.
वनों की कटाई और भूमि उपयोग में परिवर्तन
हिमालयी क्षेत्रों में वनों की कटाई और कृषि के लिए भूमि उपयोग में परिवर्तन, ढलानों की स्थिरता को कम करता है और भूस्खलन का खतरा बढ़ाता है.
निर्माण कार्य और जलवायु परिवर्तन
भारी निर्माण कार्यों, जैसे कि सड़क निर्माण और बांधों का निर्माण, पहाड़ी ढलानों को क्षति पहुँचाता है और भूस्खलन की संभावना को बढ़ाता है. जलवायु परिवर्तन भी हिमालय के नाजुक पारिस्थितिकी तंत्र को प्रभावित करता है, जिससे ग्लेशियरों के पिघलने की दर बढ़ जाती है और भूस्खलन की संभावना बढ़ जाती है.
भूस्खलन से निपटने के लिए पहल
भूस्खलन के कारण होने वाली तबाही से बचाव के लिए विभिन्न पहलें की जा रही हैं.
हिमालय के पारिस्थितिकी तंत्र को पुनर्जीवित करना
हिमालय के पारिस्थितिकी तंत्र को पुनर्जीवित करने के लिए राष्ट्रीय मिशन की शुरुआत की गई है. इस मिशन के तहत, वनों की कटाई को रोकने और वन पुनर्वास पर जोर दिया जा रहा है.
भूस्खलन की प्रेडिक्शन और निगरानी
विशेषज्ञों का मानना है कि भूस्खलन का प्रेडिक्शन और निगरानी आवश्यक है. अत्याधुनिक तकनीकों के प्रयोग से, भूस्खलन की संभावना वाले क्षेत्रों की पहचान की जा सकती है और आपदा की स्थिति में तेजी से प्रतिक्रिया सुनिश्चित की जा सकती है.
स्थानीय समुदायों की भागीदारी
स्थानीय समुदायों की भूमिका भूस्खलन के प्रबंधन में महत्वपूर्ण है. स्थानीय स्तर पर जागरूकता फैलाने और समुदायों को आपदा के लिए तैयार करने से मानवीय क्षति को कम किया जा सकता है.
टेकअवे पॉइंट
- उत्तराखंड में भूस्खलन के कारण जटिल हैं और जलवायु परिवर्तन से जुड़े वर्षा के पैटर्न में बदलाव, नाजुक हिमालयी पारिस्थितिकी और मानवीय गतिविधियों से मिलकर बनते हैं.
- वर्षा की तीव्रता, अवधि और समय में परिवर्तन ने भूस्खलन के खतरे को बढ़ा दिया है.
- वनों की कटाई, भूमि उपयोग में परिवर्तन और निर्माण कार्य ने हिमालयी ढलानों को कमजोर बना दिया है.
- भूस्खलन के खतरे को कम करने के लिए वर्षा के पैटर्न को समझना और पारिस्थितिकी को पुनर्जीवित करना जरूरी है.
- स्थानीय समुदायों की भागीदारी और आपदा के लिए तैयारी से भूस्खलन से होने वाले नुकसान को कम किया जा सकता है.
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