दिल्ली की राजनीति में हाल ही में हुए घटनाक्रम ने “खड़ाऊं पॉलिटिक्स” शब्द को चर्चा में ला दिया है. यह शब्द भारतीय राजनीति में सदियों से प्रासंगिक है और यह भारतीय इतिहास और संस्कृति के विभिन्न पहलुओं से जुड़ा हुआ है.
“खड़ाऊं” – एक राजनीतिक प्रतीक
“खड़ाऊं” का राजनीति में प्रतीकात्मक महत्व बहुत गहरा है. यह सिर्फ एक पैरों में पहनने वाली वस्तु नहीं है, बल्कि शक्ति, विरासत और जनता की भावना को प्रदर्शित करने का माध्यम है. भारतीय राजनीति में इसका प्रयोग विभिन्न संदर्भों में किया जाता है, जिसमें “खड़ाऊं प्रतिज्ञा,” “खड़ाऊं राजनीति” और “खड़ाऊं प्रतीकवाद” शामिल हैं.
“खड़ाऊं” – एक विरासत का प्रतीक
“खड़ाऊं” अक्सर विरासत और उत्तराधिकार के प्रतीक के तौर पर उपयोग होती है. श्रीराम की खड़ाऊं भरत द्वारा उनके अभाव में राज करने के प्रतीक के तौर पर सिंहासन पर रखी गई थी. यह दिखाता है कि शक्ति के हस्तांतरण का यह माध्यम विरासत को जीवित रखता है. भरत द्वारा श्रीराम की खड़ाऊं का इस्तेमाल सिर्फ उनका सम्मान प्रकट करने का माध्यम ही नहीं था, बल्कि जनता की भावना को भी सम्मान देने का माध्यम था. श्रीराम की अनुपस्थिति में राजा बनने के बजाय भरत ने श्रीराम की खड़ाऊं रखकर यह संदेश दिया कि वे श्रीराम के प्रतिनिधि हैं और सिंहासन श्रीराम का ही है.
“खड़ाऊं” – लोकतंत्र का प्रतीक
“खड़ाऊं” लोकतंत्र में जनता के महत्व और सत्ता का जनता के प्रति जवाबदेही के संकेत का भी प्रतीक है. श्रीराम की खड़ाऊं रखकर भरत ने यह मान लिया था कि जनता की आवाज सबसे बड़ी होती है और उनके विचारों का सम्मान किया जाना चाहिए. श्रीकृष्ण भी राजनीतिक संदर्भों में “खड़ाऊं” का प्रयोग करके जनता को प्रभावित करने के लिए करते थे, जैसे राजसूय यज्ञ से पहले ऋषियों की सेवा करने के दौरान उन्होंने उनके पैरों को धोया था.
महाभारत में “खड़ाऊं” की भूमिका
महाभारत में भी “खड़ाऊं” महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है. सम्राट भरत ने अपने नाना कण्व ऋषि से राज्य उत्तराधिकार के विषय में सलाह लेते समय ऋषि ने कहा था कि “साम्राज्य तुम्हारे पैर की खड़ाऊं नहीं है, जो तुम यूं ही किसी को उपभोग करने के लिए दे दो.” उन्होंने यह भी बताया कि राज्य में सफल होने के लिए प्रजापालन की योग्यता बहुत जरूरी है, जिसके लिए परीक्षा लेना आवश्यक है.
भीष्म और “खड़ाऊं प्रतिज्ञा”
भीष्म द्वारा “खड़ाऊं प्रतिज्ञा” एक उदाहरण है जिससे राजनीति में अक्सर अनपेक्षित परिणाम सामने आते हैं. उन्होंने सत्यवती के पुत्र को राजा बनाने के लिए प्रतिज्ञा ली थी, लेकिन यह प्रतिज्ञा महाभारत का एक मुख्य कारण बनी. भीष्म ने इस प्रतिज्ञा से यह उम्मीद लगाई थी कि हस्तिनापुर का अगला राजा भी अपने पिता की तरह न्यायप्रिय और न्यायशील होगा, लेकिन यह सच्चाई से दूर था.
श्रीकृष्ण और “खड़ाऊं नीति”
श्रीकृष्ण ने भी राजनीतिक सफलता हासिल करने के लिए “खड़ाऊं नीति” का इस्तेमाल किया था. जब पांडवों ने राजसूय यज्ञ करने का निर्णय लिया तो श्रीकृष्ण ने ऋषियों की सेवा करने के दौरान “खड़ाऊं नीति” का उपयोग करके उनके वरदान पांडवों को दिला दिए.
“खड़ाऊं” – राजा और प्रजा का संबंध
राजनीति में “खड़ाऊं” एक माध्यम है जिससे राजा और प्रजा के बीच का संबंध स्थापित होता है. यह यह भी दिखाता है कि एक स्वस्थ लोकतंत्र के लिए राजा और प्रजा के बीच का सामंजस्य कितना महत्वपूर्ण है. जैसे खराब या खोई हुई खड़ाऊं एक व्यक्ति के लिए चलना मुश्किल बना देती है, उसी प्रकार प्रजा और राजा के बीच असामंजस्य से राज्य की प्रगति रोक सकती है.
“खड़ाऊं” की विरासत
राजनीति में “खड़ाऊं” का प्रयोग भारतीय इतिहास के विभिन्न समय में देखने को मिलता है, जिसमें चंद्रगुप्त मौर्य, अशोक जैसे महान शासकों के जीवन के किससे और कहानियां शामिल हैं.
“खड़ाऊं” – चाणक्य की रणनीति
चाणक्य ने चंद्रगुप्त को घनानंद के राज्य के विद्रोह के लिए प्रोत्साहित करते हुए उसके पैरों में खड़ाऊं रखवाकर “खड़ाऊं” का उपयोग रणनीतिक संकेत के रूप में किया था.
“खड़ाऊं” – सम्राट अशोक की शिक्षा
अशोक की अपने भाई तिस्सा के साथ “खड़ाऊं नीति” से जुड़ी कथा बताती है कि किस तरह राज्य के प्रति अंधी आकांक्षा विनाश का कारण बन सकती है. “खड़ाऊं” अशोक की तिस्सा को राज्य का असली महत्व समझाने का माध्यम बन गयी थी.
निष्कर्ष
“खड़ाऊं” भारतीय संस्कृति और इतिहास में एक महत्वपूर्ण प्रतीक है. यह सिर्फ एक पैरों में पहनने वाली वस्तु नहीं है, बल्कि विरासत, जनता की भावना, शक्ति और राजनीतिक योजना को प्रदर्शित करने का माध्यम है. यह राजनीतिक प्रक्रियाओं, सामंजस्य, अवसरों और संभावित परिणामों को समझने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है. यह दिखाता है कि राजनीति में अपनी स्थिति को समझने और जनता के प्रति जवाबदेही को बहुत जरूरी है. आज भी, राजनीतिक नेता “खड़ाऊं” का प्रयोग करते हुए जनता के दिल में अपना स्थान बनाने का प्रयास करते हैं.
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