Indira Gandhi:: इंदिरा गांधी अपने समय की सबसे शक्तिशाली महिला मानी जाती हैं। लोग उन्हें आयरन लेडी के नाम से जानते हैं। जनता के बीच आज छवि जन नेता के रूप में बनी हुई है। इंदिरा की भाषा में इतनी सौम्यता थी कि वह जिससे बात करती वह उनके पक्ष में आ जाता। लेकिन इंदिरा को यह लोकप्रियता मिलना आसान नहीं था। क्या इंदिरा शुरुआत से ही जननेता थी या राजनीतिक समझ विकसित होने के बाद जन नेता बनीं। क्या इंदिरा गांधी को लेकप्रियता विरासत में मिली थी या उन्होंने स्वयं के बलबूते भारत की मजबूत महिला के रूप में खुद को स्थापित किया। तो आइये जानते हैं –
कैसे मिली इंदिरा को लोक्रप्रियता –
इंदिरा गांधी जवाहर लाल नेहरू की बेटी थीं। वह पढ़ने के काफी अच्छी और भावनात्मक महिला थी। बचपन से ही उन्होंने आपने पिता को राजनीति में देखा। कई बार घर पर बड़े-बड़े नेता आते तो इंदिरा थोड़ा असमंजस में पड़ जाती। इंदिरा ने सोच रखा था वह स्वयं को राजनीति से दूर रखेंगी। क्योंकि यह उनके लिए नहीं है वह कभी भी राजनीति में नहीं आना चाहती थी। लेकिन शायद किस्मत को इंदिरा की इस कमिटमेंट से एतराज था। नेहरू की मौत हुई और इंदिरा पर राजनीतिक विरासत संभालने की जिम्मेदारी आ गई। इंदिरा का मन पहले से काफी दुखी थी कि पिता की मृत्यु ने उन्हें उस राह पर चलने को मजबूर किया जिससे वह हमेशा दूर भागती थीं।
पंडित नेहरू की मौत के बाद उत्तराधिकारी के लिस्ट में इंदिरा का नाम सबसे आगे था। लेकिन इंदिरा के इंकार के बाद लाल बहादुर शास्त्री को प्रधानमंत्री नियुक्त किया गया। लेकिन कुछ समय बाद उनकी मौत हो गई और पुनः पद की लड़ाई आरम्भ हुई। इस बार प्रधानमंत्री पद की रेस में मोरारजी देसाई, गुलजारी लाल नंदा, एसके पाटिल, संजीव रेड्डी, के कामराज, वाईवी चव्हाण और इंदिरा गांधी शामिल थे। सभी चाहते थे इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री बन जाएं क्योंकि इंदिरा को वह अपने मुताबिक़ ढाल सकते हैं। लेकिन मोरारजी देसाई ने इंदिरा का प्रतिद्वंदी बनना चुना। 19 जनवरी 1966 को एक पारदर्शी चुनाव प्रक्रिया में 169 के मुक़ाबले 355 वोट हासिल करके इंदिरा ने राजनीति में महिला का ध्वज लहराया।
इंदिरा ने भारत की प्रथम महिला प्रधानमंत्री के रूप में शपथ ली। इंदिरा के लिए यह सफर आसान नहीं था क्योंकि उस दौर में पुरुष प्रधान समाज था। सदन में लोग इंदिरा को इतने ऊँचे पद पर नहीं देख पा रहे थे। राम मनोहर लोहिया ने उन्हें गूंगी गुड़िया कहना शुरू कर दिया था लेकिन इंदिरा अडिग रही।
इंदिरा राजनीति को धीरे – धीरे समझने लगीं। जिन लोगों ने उन्हें अपने स्वार्थ के लिए समर्थन दिया उनको यह महसूस होने लगा वह अब स्वतंत्रता का मूल जानती हैं हम उन्हें अपने हिसाब से नहीं चलाया जा सकता है। इंदिरा धीरे-धीरे जनता से जुड़ने का प्रयास करने लगीं, छोटी -छोटी सभाओं को सम्बोधित करने लगीं और 1967 में उन्होंने एक चुनावी सभा को सम्बोधित किया।
1967 यह वह दौर था जब इंदिरा की लोकप्रियता जीरो थी और वह जनता के बीच स्वयं को स्थापित करने के प्रयास में जुटी थीं। उस समय जमीनी स्तर पर उड़ीसा स्वतंत्र पार्टी का बोलबाला था। इंदिरा ने बोलना शुरू किया और और उनका विरोध शुरू हो गया। उनके ऊपर पत्थर फेंके गये। उनके समर्थको ने कहा चलिए सभा बंद कीजिये यहां आपको खतरा है। लेकिन उन्होंने बोलना बंद नहीं किया वह लगातार जनता को सम्बोधित करते रहीं।
इंदिरा जनता से कहती रहीं क्या ऐसे ही आप देश को बनाएंगे। क्या आप इस तरह ही वोट देंगे। लेकिन भीड़ नहीं रुकी और एक पत्थर सीधे आकर इंदिरा गांधी की नाक पर लगता है और खून की धार बहने लगती है। इंदिरा की नाक की हड्डी टूट गई इंदिरा ने विनम्रता के साथ नाक का खून पोछ लिया और पुनः जनता को सम्बोधित करना शुरू किया। इंदिरा का जज्बा देख विपक्ष और षड्यंत्रकारी भयभीत थे क्योंकि यह दिख रहा था अब इंदिरा एक ज्वाला बन चुकी हैं जो ह्रदय जीतने के लिए किसी भी हद तक जा सकती हैं।
टूटी नाक फिर भी इंदिरा का नहीं टुटा विश्वास –
इंदिरा गांधी ने मानों जनता का दिल जीतने की कसम खा ली थी। भरी सभा में उनपर पत्थर बरसे। नाक की हड्डी टूट गई, रक्त की धार बहने लगी लेकिन वह नहीं रुकीं उन्होंने जनता को सम्बोधित किया और बिना आराम किए दूसरे दिन नाम पर प्लास्टर चढ़वाए चुनाव प्रचार किया। विपक्षी नेताओं ने उनका मजाक बनाया उनकी नाम पर कटाक्ष किया। कई लोगों ने कहा उनकी शक्ल बैटमैन जैसी लग रही है। लेकिन इंदिरा ने सभी को नकार दिया और अपने संकल्प से आगे बढ़ती रहीं। कहीं जाती तो जनता के बीच बैठ जातीं। किसी के भी साथ भोजन करने लगना, किसी को भी गले लगा लेना, अचानक से किसी के खेत में पहुंच जाना, महिलाओं से मिलकर उनसे बात करना इंदिरा का स्वाभाव बन चुका था।
इंदिरा का यह बदला रूप विपक्ष के नेताओं को कांटे की भांति चुभता था। क्योंकि अब जनता इंदिरा का गुणगान करती और उन्हें अपना नेता कहती थी। इंदिरा का सफर यदि देखें तो उन्होंने स्वयं को स्थापित करने के लिए सबकुछ दांव पर लगा दिया। स्वयं को राजनीति में झोंकने वाली इंदिरा गांधी आज भी जन नेता के रूप में जानी जाती हैं। एक ऐसी नेता जिन्होंने पितृ सत्ता में महिला के विश्वास और जीत के संकल्प का विजय पताका लहराया।
1969 में इंदिरा की बढ़ती लोकप्रियता पुरुषों को खटकने लगी और कांग्रेस पार्टी दो भागों में विभक्त हो गई। सबको लगा यह इंदिरा के विश्वास को तोड़ देगा और इंदिरा गांधी राजनीति से बाहर हो जाएंगी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ 1971 में चुनाव की घोषणा हुई और इंदिरा गांधी को भरपूर जनसमर्थन मिला और भारी मतों से जीत दर्ज कर इतिहास रच दिया।