भगवान श्री कृष्ण जी ने इस पृथ्वी पर अवतीर्ण होकर जिन महान कार्यों को किया है, उनका विस्तार पूर्वक वर्णन, मध्यकालीन ग्रन्थकारों ने भविष्य, भविष्योत्तर, स्कन्द, विष्णुाधर्मोनार, नारदीय एवं ब्रम्हवैवर्त पुराणों से उद्धरण लिये हैं। इसके अतिरिक्त भगवान श्री कृष्ण के प्राकट्य का विस्तार एवं उनके द्वारा किये गये महान कार्यों का वर्णन श्रीमद्भागवत तथा महाभारत में विस्तार पूर्वक मिलता है। यही नहीं छन्दोपनिषद (3/17/6) में आया है कि कृष्ण देवकी पुत्र ने प्रांगिरस से शिक्षाएं ग्रहण की, यही नहीं जैन परम्पराओं में भी कृष्ण 22वें तीर्थंकर नेमिनाथ के समकालीन माने गये हैं, और जैनों के प्राक-इतिहास के 63 महापुरूषों के विवरण में लगभग एक तिहाई भाग कृष्ण सम्बन्ध में ही है।
हरिवंश, वायु, विष्णु, भागवत एवं ब्रम्हवैवर्त पुराणों में जो श्री कृष्ण जी की लीलाओं का वर्णन है, महाभारत में भगवान श्री कृष्ण ने गीता में अर्जुन को दिए गए उपदेशों में राजनीति, समाजनीति, रणनीति, लोकनीति, मानवधर्म, व्यक्तिधर्म, समाचार शिष्टाचार, माया रहस्य, प्रकृति रहस्य, कर्म रहस्य, कर्तव्यतत्व, त्यागतत्व, सन्यासतत्व, भगवतत्व, भगवान आदि गूढ़ विषयों पर विस्तार पूर्वक समझाया है, इस प्रकार भगवान श्री कृष्ण जी के उपदेशों तथा लीलाओं का पुराणों, उपनिषदों एवं अन्य ग्रंथों में किये गये वर्णनों का उल्लेख कोई सामान्य कार्य नहीं है। इस पर एक बड़े ग्रंथ की रचना करना भी सामान्य कार्य नहीं है।
इन पुराणों तथा इतिहासों पर अनेकों उपजीव्य काव्य लिखे जा चुके हैं। भगवान श्री कृष्ण जी का अवतार भाद्रमास में हुआ। भाद्र शब्द का अर्थ है कल्याण देने वाला, कृष्ण पक्ष स्वयं कृष्ण नाम से सम्बद्ध है। अष्टमी तिथि पक्ष के बीचो बीच सन्धि स्थल पर पड़ती है। रात्रिकाल योगी जनों को प्रिय है। निशीथ यातियों का सन्ध्याकाल और रात्रि के दो भागों की सन्धि स्थल पर पड़ती है। रात्रिकाल योगी जनों को प्रिय है। निशीथ यातियों का सन्ध्याकाल और रात्रि के दो भागों की सन्धि स्थल पर पड़ती है, उस समय श्री कृष्ण जी निशानाथ चन्द्र के वंश में जन्म लेना है, तो निशा के मध्य भाग में अवतीर्ण होना उचित भी है। अष्टमी को चंद्रोदय का समय भी वही है, यदि वसुदेव जी को जन्म के समय जातक कर्म करना सम्भव न था तो चन्द्रमा अपने किरणों से अमृत का वितरण कर रहे थे। ऐसे समय में-
अथ सर्वगुणोपेतः कालः परम शोभनः।
यद्र्येवाजन जन्मक्र्ष शान्तक्र्षग्रहवारकम।। श्री मद्भागवत (10-3-1)
जब समस्त शुभ गुणों से युक्त बहुत सुहावना समय आया रोहिणी नक्षत्र था, आकाश के सभी नक्षत्र ग्रह और तारे शांत तथा सौम्य हो रहे थे, पौराणिक ग्रन्थों में भगवान की दो पत्नियों का उल्लेख किया गया है। एक श्री देवी, दूसरी भू देवी यह दोनों चल तथा अचल सम्पत्तियों की स्वामिनी हैं। श्री देवी चल सम्पत्ति की तथा भू देवी अचल सम्पत्ति की। जिस तरह भगवान वैकुण्ठ से उतरकर भू देवी अर्थात इस पृथ्वी पर आने लगे तो पृथ्वी का मंगलमयी होना, मंगल चिन्हों को धारण करना स्वाभाविक था।
वामन वाल पांच रूपधारी ब्रम्हचारी थे, परशुराम जी ने ब्राम्हणों को दान दे दिया था, रामचन्द्र जी ने पृथ्वी की पुत्री जानकी से विवाह कर लिया था। इसलिए उन अवतारों में भगवान से जो सुख नहीं प्राप्त कर सकीं वह सब सुख प्राप्त करूंगी श्री कृष्ण के अवतार में। यह विचार कर पृत्वी मंगलमयी हो गयीं, शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध का परित्याग करने पर भगवान मिलते हैं किन्तु इस सभी का त्याग किए बिना स्वयं साक्षात भगवान अवतीर्ण हो रहे हैं। लौकिक आनन्द भी प्रभु से प्राप्त होगा यह सोचकर ज्ञानियों का मन प्रसन्न हो गया। श्री मद्भागवत के नवम स्कन्ध 24वें अध्याय के 56वें श्लोक में कहा है-
यदा यदेहि धर्मस्य क्षयो वृद्धिश्श्रच पारमनः।
तदा तु भगवानीश आत्मनं सृजते हरिः।।
जब जब संसार में धर्म का हृास और पाप की वृद्धि होती है तब-तब सर्वशक्तिमान भगवान हरि अवतार लेते हैं।
संसार में दो प्रकार के लोग कहे गये हैं। दैवी सम्पदा तथा आसुरी सम्पदा वाले लोग। जब आसुरी सम्पदा (असुर) लोगों ने राजाओं का वेश धारण कर लिया तथा कई अक्षौहिणी सेना इकट्ठी करके सारी पृथ्वी के सदाचारी लोगों को रौंदने लगेतब भगवान मधुसूदन (श्री कृष्ण जी) बलराम जी के साथ अवतीर्ण हुए। उन्होंने ऐसी- ऐसी लीलाएं की जिनके सम्बंध में बड़े-बड़े देवता मन से भी अनुमान नहीं कर सकते, शरीर से करने की तो बात ही अलग है। श्री मद्भागवत के नवम स्कन्द 24वें अध्याय में कहा गया है कि पुरूषोत्तम भगवान श्री कृष्ण वसुदेव जी के घर मथुरा में अवतीर्ण हुए परन्तु वहां रहे नहीं। वहां से गोकुल में नंद बाबा के घर चले गये। वहां अपना प्रयोजन- जो ग्वालों, गोपियों तथा गांवों को सुखी करना था, करके मथुरा लौट आये ब्रज, मथुरा तथा द्वारिका में रहकर अनेकों राक्षसों तथा राक्षसी प्रकृति के लोगों का संहार किया। कौरव तथा पाण्डवों के बीच उत्पन्न हुए आपस की कलह से उन्हांेने पृथ्वी का बहुत सा भार हल्का कर दिया। युद्ध में अपनी दृष्टि ेसे ही राजाओं की बहुत सी अक्षौहिणी सेना का नाश करके अर्जुन की विजय का डंका पिटवा दिया, फिर उद्धव को आत्म तत्व का उपदेश दिया और इसके बाद वे अपने परमधाम को सिधार गये।
द्वारिकां हरिणात्यक्तं समुद्रो दप्वावमनक्षणात।
गर्जयित्वा महाराज श्रीमद् भागवालयम।।
भगवान श्री कृष्ण के न रहने पर समुद्र ने एक मात्र भगवान श्री कृष्ण के निवास स्थान को छोड़कर एक धारा में सारी द्वारिका को समुद्र में डुबो दी। भगवान श्री कृष्ण ने अपने जीवन काल में जैसा पूर्व में संक्षिप्त वर्णन किया गया है। गीता में तथा श्री मद्भागवत में उद्धव जी को ज्ञानोपदेश दिये उनका वर्णन करना कठिन है। वे उपदेश बड़े ही ज्ञान गर्भित हैं, गीता में कर्मयोग की निश्चित व्याख्या श्री कृष्ण ने की है, उससे कभी भारत वासियों को शिक्षा लेनी चाहिए। पहिला शब्द कर्म है, कर्म व्याकरण के अनुसार कृ धातु से बना है उसका शाब्दिक अर्थ है करना, व्यापार हलचल ऐसे ही सामान्य अर्थों का गीता में उपयोग हुआ है। कर्मों के तीन भेद किए गये हैं निज्य, नैमित्रिक तथा काम्य, गीता में भगवान श्री कृष्ण ने जो कर्म का वर्णन किया है वह बहुत व्यापक तथा विस्तीर्ण है।मान लीजिए अमुक कर्म शास्त्रों में निषिद्ध माना गया है अथवा वह विहित कर्म ही कहा गया है। जैये युद्ध के समय क्षात्र धर्म है। अर्जुन के लिए विहित कर्म था तो इतने से ही यह सिद्ध नहीं होता कि हमें वह कर्म हमेशा करते रहना चाहिए, अथवा उस कर्म का करना हमेशा श्रेयस्कर ही होगा। किस समय मनुष्य को कौन सा कर्म करना चाहिए इस कर्म को करने के लिए है या नहीं। यदि है तो कौन सी बस यही गीता का मुख्य विषय है। कर्म शब्द से भी अधिक भ्रम कारक योग शब्द है। योग शब्द (युज) धातु से बना है। जिसका अर्थ है जोड़, मेल, मिलाप, एकता, एकत्र अवस्थिति इत्यादि होता है और ऐसी स्थिति का उपाय, साधन युक्ति या कर्म को भी योग कहते हैं। यही अर्थ अमर कोष में भी इस प्रकार दिया गया है-
(योगः संहननोपाध्यान संगति युक्तिषु)
महाभारत के युद्ध में द्रोणाचार्य को अजेय देखकर कहा-
(एकोहि योगोस्य भवेद्वधाम)
अर्थात द्रोणाचार्य जी को जीतने का एक ही साधन योग या युक्ति है और आगे चलकर उन्होंने यह भी कहा था कि हमने पूर्वकाल में धर्म की रक्षा के लिए जरासंध राजाओं को योग से ही कैसे मारा था। उद्योग पर्व के 172वें अध्याय में आया है कि जब भी भीष्म ने अम्बा, अम्बिका, अम्बालिका का हरण किया तब राजा लोग योग योग कहकर उनका पीछा करने लगे।
महाभारत में योग शब्द का प्रयोग इसी अर्थ में हुआ है। गीता में भगवान श्री कृष्ण ने योग, योगी, अथवा योग शब्द से बने हुए सामाजिक शब्दो ंका लगभग 80 बार प्रयोग किया था किन्तु चार या पांच स्थानों को छोड़कर अन्यन्य केवल मुक्ति, साधन, कुशलता, उपाय, जोड़, मेल यही अर्थ कुछ परिवर्तन से सम्पूर्ण गीता में श्री कृष्ण जी ने कहा है। अतएव कह सकते हैं कि गीता के व्यापक अर्थों में योग भी एक शब्द है। योग शब्द की निश्चित व्याख्या दूसरे अध्याय के पचासवें श्लोक में की गई है-
बुद्धि युक्तो जहानीह उमेसुकृत दुष्कृते।
तस्याद्योगाय मु॰यस्व योगः कर्मसु कौशलम।।
जो साम्य बुद्धि से युक्त हो जाय वह दस लोक में पाप और पुण्य दोनों से प्रालिप्त रहता है। अतएव योग का आश्रय (पाप पुण्य से बचकर) कर्म करने की चतुराई को भी योग कहते हैं।(योगः कर्मसुकौशलम) अर्थात कर्म करने की किसी विशेष चतुराई अथवा शैली को भी योग कहते हैं। यदि सामान्यतया देखा जाय तो एक ही कार्य करने के अनेक उपाय होते हैं किन्तु जो उपाय या साधन उत्तम हो उसे ही योग कहते हैं। गीता में जो भगवान ने 18 अध्ययाओं में उपदेश किया है वह भारत ही नहीं बल्कि समस्त विश्व के लिए शिक्षाप्रद है। इसीलिए भगवान श्री कृष्ण द्वारा कही गीता का अनुवाद विश्व की सबसे ज्यादा भाषाओं में हुआ है। इसी प्रकार श्री मद्भागवत के 11वें स्कन्ध में उद्धव जी को जो ज्ञान सागर का उपदेश किया है तथा परमधाम को चले गये।
ईशा पूर्व दूसरी या पहिली शताब्दी के घोमुण्डी अभिलेख में कृष्ण भगवत तथा परमेश्वर कहा है। यही बात नानाघाट अभिलेखों (ई.पूर्व 200ई.) में मिलती है। नेसनगर के गरूण ध्वज अभिलेख में वसुदेव को देव देव कहा गया है, ये प्रमाण सिद्ध करते हैं कि ई. 500 वर्षों के लगभग उत्तरी एवं मध्य भारत में वसुदेव की पूजा प्रचलित थी।
भविष्येत्तर पुराण में (44-1-68) में कृष्ण द्वारा कृष्ण जन्माष्टमी व्रत के सम्बंध में युधिष्ठिर से स्वयं कहलाया गया है कि मैं वसुदेव देवकी से भाद्र मास कृष्ण पक्ष अष्टमी को हुआ था जब सूर्य सिंह राशि में था चन्द्रमा वृषभ राशि में तथा रोहिणी नक्षत्र था (74-75) श्लोक, जन्माष्टमी व्रत में प्रमुख कृत्य हैं उपवास, कृष्ण भगवान का पूजन रात्रि जागरण तथा कृष्ण के श्लोक का पाठ तथा जीवन सम्बंधी कथाएं सुनना एवं पारण। ब्रम्हवेवर्त पुराण में आया है कि नारद पुराण, अग्नि पुराण, तिथितत्व एवं कृत्यतत्व आदि पारण के उपरांत व्रती को (ऊं भूताय भूतेश्वराय, भूतयतये, भूतसम्यनाथ गोविन्दाय नमोनमः) नामक मंत्र का पाठ करना चाहिए। कुछ परिस्थितियों में पारण रात्रि में भी किया जाता है। वे..जो सैदव निष्काम व्रत करते हैं वे रात्रि में पारण कर सकते हैं किन्तु जो कामना के लिए काम्यवश करते हैं उन्हें प्रातः पारण करना चाहिए।