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आध्यात्मिक – श्रीमद्भगवद्गीता भारत की एक महान धार्मिक ग्रंथ है, जो हिंदू धर्म की महत्वपूर्ण ग्रंथों में से एक है। यह अर्जुन और कृष्ण के बीच हुए एक संवाद को वर्णित करता है, जो महाभारत के युद्ध से पहले हुआ था। गीता के श्लोक कलयुग में व्यक्ति का मार्गदर्शन करते हैं और उसे सत्य से वाकिफ करवाते हैं।  वहीं आज हम आपको गीता के कुछ श्लोक का अर्थ सहित व्याख्यान करेंगे। यह वह श्लोक हैं जिनका सार यदि आप समझ जाते हैं तो आपका जीवन सहज-सरल और सुखी हो जाता है। 

जानें गीता के श्लोक अर्थ सहित –

अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे।
गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः।।

भावार्थ: हे अर्जुन! तुम अनश्वर शरीर के लोगों की शोक करते हो। प्रज्ञा के तत्त्वों की बात कहते हो और फिर भी तुम बुद्धिमान लोगों की तरह गति-संबंधी विषयों के अग्रेषिता व समाप्ति से न उतरते हुए भी नहीं शोक करते हो। (यहां गति-संबंधी विषय संसारिक उतार-चढ़ाव तथा शरीर के अवसान को दर्शाता है।)

यदा हि धर्मग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।।

यह श्लोक भगवद गीता के अध्याय 4 श्लोक 7 में दिया गया है। इसका अर्थ निम्नलिखित है:

जब धर्म का अधिकार नाश होता है और अधर्म शासन करता है, तब मैं स्वयं प्रकट होता हूँ और संसार को सुधारने के लिए अवतार लेता हूँ।

यह श्लोक भगवान श्री कृष्ण के अवतार के बारे में है। इसमें भगवान कहते हैं कि जब धर्म का अधिकार नष्ट हो जाता है और अधर्म शासन करने लगता है, तब वह अपने स्वयं के रूप में प्रकट होता है और संसार को सुधारने के लिए अवतार लेता है। यह श्लोक भगवान के उद्देश्य के बारे में भी बताता है कि उनका अवतार संसार को सुधारने के लिए होता है।

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि।।

यह श्लोक भगवद गीता के अध्याय 2 श्लोक 47 में दिया गया है। इसका अर्थ निम्नलिखित है:

आपका कर्तव्य है केवल कर्म करना और फल की चिंता न करें। आप कर्मफल के लिए कर्तव्य नहीं करते हैं, इसलिए आपको कर्म से संबंधित जुड़ाव नहीं होना चाहिए।

यह श्लोक एक अहंकार के विरुद्ध भावना को दर्शाता है। भगवान कहते हैं कि हमें केवल कर्म करना चाहिए, फल की चिंता नहीं करनी चाहिए। यह श्लोक हमें यह समझाता है कि कर्मफल हमारी कार्यवाही के परिणाम होते हैं, लेकिन हमें फल के लिए काम करना नहीं चाहिए, अपितु कर्म करना चाहिए।

वासांसि जीर्णानि यथा विहाय
नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा
न्यन्यानि संयाति नवानि देही।। 

यह श्लोक भगवद गीता के अध्याय 2 श्लोक 22 में दिया गया है। इसका अर्थ निम्नलिखित है:

जैसे कि एक व्यक्ति जब अपने पुराने और फटे हुए वस्तुओं को त्याग कर नए वस्तुओं को ग्रहण करता है, उसी प्रकार जब शरीर जीर्ण हो जाता है तो जीवात्मा उस शरीर को छोड़कर एक नये शरीर को प्राप्त करता है। इसलिए, शरीर जैसे वस्तुओं का एक मात्र संचार होता है। शरीर नष्ट होते हुए जीवात्मा नये शरीरों को धारण करती है।