पत्थलगड़ी समर्थकों की दलील है कि अनुसूचित क्षेत्रों में न किसी अदालत का फैसला चलेगा न राज्य सरकार का कार्यकारी आदेश। यहां सामान्य लोगों के लिए भी कोई अधिकार नहीं है। यानी उन इलाकों में सामान्य आदमी को भ्रमण के लिए भी अनुमति लेनी होगी। पत्थलगड़ी समर्थक जो शिलालेख लेकर घूम रहे हैं उसमें भारत सरकार के 2007 के गजट और संविधान की पांचवीं, छठी अनुसूची का हवाला है। आंदोलनकारी मानते हैं कि इन जिलों में हमारा कानून लेगा। पहड़ा, मानकी परगनैत और ग्राम सभा जैसे आदिवासी स्वशासन व्यवस्था से। जानकार मानते हैं कि टानाभगतों को आगे कर कोई खेल कर रहा है। पुराने पत्रकार और न्यूजविंग के संपादक शंभू चौधरी मानते हैं कि संविधान के विश्लेषण में कहीं न कहीं लोचा है। सरकार को पहल करने, संविधान विशेषज्ञ के साथ आंदोलनकारियों से बात कर रास्ता निकलना चाहिए।
आदिवासियों की सभ्यता, संस्कृति का हिस्सा
पत्थलगड़ी आदिवासियों की प्राचीन परंपरा, संस्कृति का हिस्सा है। विशेषकर मुंडा प्रजाति में। जानकार बताते हैं कि मुंडाओं में करीब चालीस प्रकार की पत्थलगड़ी होती है। इसका मूल मकसद किसी घटना को न केवल स्मारक या यागार के रूप में संजोकर रखना बल्कि अपने जीवन शैली का भी परिचायक है। जैसे ” ससन दिरी” परंपरा। अगर किसी अपने पूर्वज की याद में पत्थल को गाड़ा जाता है जो उसकी आत्मा को घर में स्थान और सम्मान देने का प्रतीक है। ” सीमान दिरी ” एक प्रकारकी पत्थलगड़ी है जो गांव की सीमा को दर्शाता है। अखड़ा दिरी, अखड़ा में गाड़ा जाता है जिसका मकसद शिक्षा देने के लिए होता है। आदिवासी जल, जंगल और जमीन से किसी प्रकार का समझौता नहीं चाहते। उनका मानना है शासन में आये लोगों ने उनके हितों की अनदेखी की है। उनकी थाती को किसी न किसी नाम पर हड़पा है। अनुसूचित क्षेत्र को सरकार भी एक सीमा तक मानती है उन इलाकों में पंचायत चुनाव नहीं होते हैं।
पत्थलगड़ी का एक चेहरा यह भी
मगर इसी पत्थलगड़ी की आड़ में अफीम के सौदागर नाजायज फायदा उठाते रहे हैं। खासकर खूंटी जैसे इलाके में पत्थलगड़ी के नाम पर पुलिस प्रशासन और आम लोगों का प्रवेश वर्जित कर माओवादी, पीएलएफआइ से जुड़े लोग सुरक्षित तरीके से पोस्ता की खेती कर अफीम का धंधा करते हैं। भोले भाले आदिवासियों को परंपरा के नाम पर इस तरह नियंत्रित कर लेते हैं कि ग्राम सभा और स्वशासन के नाम पर केंद्र की मुफ्त गैस, बिजली जैसी योजनाओं को भी ग्रामीण नकार देते हैं। आंदोलन के क्रम में अनेक लोगों ने प्रधानमंत्री आवास, वोटर आई कार्ड, आधार कार्ड जैसे दस्तावेज, शौचालय, आवास वापस कर दिये। यहां तक कि सरकारी स्कूलों से बच्चों को हटा लिया। एक दिन पहले खूंटी जिला के खूंटी प्रखंड के हाबुईडीह, बोंगाबाद गांव ऐसे ही कोई 53 लोगों ने सरकारी व्यवस्था में आस्था जाहिर करते हुए वोटर कार्ड, आधार कार्ड, राशन कार्ड और दूसरे प्रमाण पत्र जैसे दस्तावेज वापस लिये।
बंधक बने थे एसपी सहित डेढ़ सौ जवान
बात 2017 की है तब खूंटी जिला मुख्यालय से कोई बीस किलोमीटर दूर कांकी-सिलादोन गांव के करीब ग्रामीणों ने एसपी, डीएसपी, मजिस्ट्रेट सहित पुलिस के कोई डेढ़ सौ जवानों को रातभर बंधक बनाये रखा था। दरअसल प्रशासन के लोग तक पत्थलगड़ी समर्थकों द्वारा लगाये गये शिलालेखों को हटाने गये थे। तब तत्कालीन डीजीपी को समझाने खुद जाना पड़ा था। दूसरे अधिकारियों की हिम्मत नहीं थी कि गांव में प्रवेश कर जायें। उन शिलालेखों पर संविधान की पांचवीं अनुसूची के हवाले सांसद, विधायक, किसी भी अधिकारी या बाहरी व्यक्ति के प्रवेश पर रोक का संदेश था। उस समय समानांतर मुद्रा चलाने की भी बात हो रही थी। इसी क्रम में आंदोलन का रूप विकृत हुआ तो रघुवर सरकार के समय में बड़ी संख्या में आंदोलनकारियों पर राष्ट्रद्रोह का मुकदमा चला। हेमन्त सोरेन से सत्ता संभालते ही कैबिनेट की पहली बैठक में ही उन मुकदमों को वापस लेने का एलान किया। बहरहाल पत्थलगड़ी का आंदोलन राजधानी पहुंच गया है, समय रहते इस पर काबू पाने की जरूरत है नहीं तो सरकार के लिए यह बड़ी समस्या बन सकता है।