देहरादून। उत्तराखंड में मौसम की बेरुखी जंगलों पर भारी गुजर रही है। बारिश-बर्फबारी न होने के कारण पिछले छह माह से जंगल धधक रहे हैं। अब पारे के उछाल भरने के साथ ही जंगल की आग के गांवों के नजदीक पहुंचने की घटनाएं चिंता में डाल रही है। मौसम के रुख के मद्देनजर जंगल बचाने को रणनीतिक अभाव सभी को खटक रहा है। रोजाना ही जंगलों को क्षति पहुंच रही है। सूरतेहाल, इस कठिन वक्त में जंगल बचाने को सामूहिक प्रयासों की दरकार है। हालांकि, संसाधनों की कमी से जूझ रहा वन विभाग जनसहभागिता की बात तो करता है, मगर इस मोर्चे पर वह विफल रहा है। अब वक्त आ गया है कि जंगल बचाने के लिए आमजन को अग्नि प्रबंधन से जोड़ा जाए। इसके लिए ग्रामीणों को प्रशिक्षण देकर वन बचाने में उनकी भागीदारी सुनिश्चित की जा सकती है। आखिर, सवाल वनों, वन्यजीवों और जैवविविधता को बचाने का जो है।
जीवन पर भारी पड़ती आग
181 दिन, 928 घटनाएं, 1207.88 हेक्टेयर क्षेत्र तबाह, छह व्यक्तियों की मौत और दो घायल। यह है उत्तराखंड में अक्टूबर से अब तक जंगलों की आग का लेखा-जोखा। साफ है कि आग से जंगलों को भारी नुकसान तो पहुंच ही रहा, यह जीवन पर भी भारी पड़ रही है। इससे पहले वर्ष 2016 में जंगल की आग ने विकराल रूप धारण किया था तो तब भी आग बुझाने के दौरान छह व्यक्तियों को जान गंवानी पड़ी थी। पिछले छह साल के आंकड़े ही देखें तो इस अवधि में 15 व्यक्तियों की मौत जंगल में आग बुझाने के दौरान झुलसने से हो चुकी है, जबकि 31 घायल हुए। इस मर्तबा घायलों की संख्या दो है, मगर मगर मृतकों का आंकड़ा ज्यादा है। सूरतेहाल चिंता बढ़ना स्वाभाविक है। साथ ही सबकी जुबां पर यही बात है कि आग पर नियंत्रण को भेजे जाने वाले कार्मिकों व ग्रामीणों को पहले प्रशिक्षण जरूरी है।
कब होगा हेलीकाप्टरों का इस्तेमाल
थोड़ा पीछे मुड़कर देखें तो वर्ष 2016 में विषम भूगोल और 71.05 फीसद वन भूभाग वाले उत्तराखंड के जंगलों में आग ने सभी रिकार्ड तोड़ दिए थे। तब फायर सीजन यानी फरवरी से लेकर मानसून आने तक की अवधि में जंगल लगातार धधके और 4400 हेक्टेयर जंगल तबाह हो गया था। आग घरों की दहलीज तक पहुंचने लगी थी। आग पर काबू पाने के लिए तब सेना की मदद लेनी पड़ी थी। हेलीकाप्टरों से आग को बुझाया गया था। इस बार भी परिस्थितियां 2016 जैसी ही हैं। बावजूद इसके हेलीकाप्टर लगाने की दिशा में अभी कोई पहल नहीं हो पाई है। हालांकि, सरकार में नेतृत्व परिवर्तन के बाद नए मुख्यमंत्री तीरथ सिंह रावत ने इस संबंध में प्रस्ताव केंद्र को भेजने के निर्देश अधिकारियों को दिए थे, मगर अभी तक पहल नहीं हो पाई है। ऐसे में सवाल उठना लाजिमी है कि हेलीकाप्टरों का उपयोग अब नहीं तो आखिर कब।
जलाएगा नहीं, झोलियां भरेगा पिरुल
राज्य के कुल वन भूभाग के करीब 16 फीसद हिस्से में चीड़ के जंगल पसरे हैं। इनमें हर साल औसतन करीब 23.66 लाख मीट्रिक टन चीड़ की पत्तियां (पिरुल) गिरती हैं। अग्निकाल में यही पिरुल जंगलों में आग के फैलाव का बड़ा कारण बनता है। जंगलों में बिछी पिरुल की परत जमीन में बारिश का पानी भी नहीं समाने देती। इस सबको देखते हुए पिरुल को संसाधन के तौर पर लेते हुए इसका उपयोग बिजली, कोयला आदि बनाने में करने पर जोर दिया जा रहा है। इस सिलसिले में कुछ यूनिटें लग चुकी हैं। पिरुल के दाम भी तय कर दिए गए हैं, मगर नीति में अभी कई खामियां हैं। मसलन, पिरुल का एकत्रीकरण करने पर ग्रामीणों को भुगतान कौन करेगा, पिरुल को कहां रखा जाएगा और कौन इसकी माप-तौल करेगा। इकाइयों को यह कैसे उपलब्ध होगा। खैर, अब इस सिलसिले में तैयार होने वाली गाइडलाइन का सबको इंतजार है।