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देहरादून। विभिन्न सेटेलाइट चित्रों के अध्ययन के माध्यम से हमारी विभिन्न वैज्ञानिक एजेंसी यह पहले ही स्पष्ट कर चुकी हैं कि ऋषिगंगा कमैचमेंट क्षेत्र से निकली जलप्रलय का कारण हैंगिंग ग्लेशियर बना था। यह ग्लेशियर रौंथी पर्वत था और इसके चट्टान के साथ टूटकर गिर जाने से जलप्रलय आई। अब अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा (नेशनल एरोनॉटिक्स एंड स्पेस एडमिनिस्ट्रेशन) ने सेटेलाइट चित्रों के अध्ययन से बताया है कि आपदा की शुरुआत 20 जनवरी को हो चुकी थी। क्योंकि 20 जनवरी के सेटेलाइट चित्र में रौंथी पर्वत पर दरार उभर गई थी। इसी चट्टान पर वह हैंगिंग ग्लेशियर था, जो टूट गया था।

नासा की अर्थ ऑब्जर्वेटरी ने ‘ए डेडली डेबरीस फ्लो इन इंडिया’ नाम से एक रिपोर्ट भी प्रकाशित की है। रिपोर्ट में बताया गया है कि सेटेलाइट चित्रों के अध्ययन से पता चला है कि रौंथी पर्वत पर पहले दरार उभरी। वहीं, इस पर्वत पर पहले से ही हैंगिंग ग्लेशियर का भार था। किन्हीं कारणों से दरार बढ़ती चली गई और चट्टान इतनी कमजोर हो गई कि हैंगिंग ग्लेशियर का भार सहन नहीं कर पाई। जब चट्टान गिरी तो उसके साथ हैगिंग ग्लेशियर भी टूटकर गिर गया। नासा की रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि 21 फरवरी को भी रौंथी पर्वत का सेटेलाइट चित्र लिया गया है। दोनों चित्रों से स्पष्ट होता है कि दरार ही चट्टान व ग्लेशियर के टूटने की वजह बनी। अब ताजा चित्र में रौंथी पर्वत के भूस्खलन जोन में मलबे के निशान बाकी हैं।

इस पर्वत पर हैंगिंग ग्लेशियर करीब 5600 मीटर की ऊंचाई पर था और इसकी लंबाई लगभग आधा किलोमीटर थी। ग्लेशियर 82 से 85 डिग्री का कोण लेकर नीचे की तरफ लटका हुआ था। इसी के चलते टूटने के बाद चट्टान व ग्लेशियर ने तीव्र गति पकड़ ली थी। जो कि रौंथी गदेरे में 11 किलोमीटर की दूरी तय कर 3800 मीटर की ऊंचाई पर ऋषिगंगा नदी में जा गिरा। यहां पर बर्फ व मलबा जमा हो गए और एक कृत्रिम झील का निर्माण हो गया। सात फरवरी की सुबह भारी दबाव के चलते यह झील टूट गई और मलबे सहित निचले क्षेत्रों में तबाही बरपाते हुए आगे बढ़ती चली गई।

सेटेलाइट निगरानी है अहम

जलप्रलय के बाद उत्तराखंड, देश व दुनिया की तमाम वैज्ञानिक एजेंसियों ने घटना की पड़ताल की और वास्तविक कारण भी खोज निकाले। फिर भी एक सवाल अब भी बाकी है कि क्या कुछ ऐसा नहीं हो सकता कि आपदा से पहले ही उसके संकेत मिल जाएं। विशेषज्ञों का मत है कि यदि ग्लेशियरों की निगरानी सेटेलाइट के माध्यम से तेज की जाए तो उच्च हिमालयी क्षेत्रों में हो रहे असमान्य बदलावों को भांपा जा सकता है। बहुत संभव है कि समय रहते किसी तरह की चेतावनी जारी कर निचले क्षेत्रों में अधिक सतर्कता बरती जा सकती है।