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कुशीनगर : उन्नीसवीं शताब्दी में कुशीनगर की खोज शुरू हुई। फाह्यान,  ह्वेनसांग तथा इत्सिंग जैसे चायनीज तीर्थयात्रियों की डायरियों में उपलब्ध मार्ग विवरण के आधार पर अंग्रेज इतिहासकार कुशीनगर को खोजते हुए 1870 के दशक में इधर आए। विशुनपुर बिंदवलिया ग्राम सभा में ऊंचे-ऊंचे टीलों के बीच सब कुछ तो मिट्टी के नीचे दबा छिपा था किंतु भगवान बुद्ध की एक प्रतिमा पीपल के वृक्ष के नीचे अव्यवस्थित थी, उसी ने कुशीनगर की खोज के लिए आगे की राह आसान की।
तत्कलीन ब्रिटिश सरकार की सहमति तथा आर्थिक सहायता से गठित ‘भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण’ के तत्वाधान में सन् 1876 में एसीएल कार्लाइल के नेतृत्व में कुशीनगर के टीलों की खुदाई शुरू हुई, जिसके परिणाम स्वरूप कुशीनगर का अस्तित्व उभर कर पुनः दुनिया के सामने आ पाया।
माथा कुंवर की प्राचीन प्रतिमा 03.05 मीटर ऊंची भूमिस्पर्श मुद्रा में आसनस्थ है। भूमिस्पर्श मुद्रा को बुद्ध अभिप्रेरित ज्ञान जगत में अति महत्वपूर्ण मुद्राओं में स्थान प्राप्त है, जो भगवान बुद्ध के सिद्धार्थ स्वरूप में ज्ञान प्राप्ति हेतु किए गए कठोर तप का प्रतीक है। इस मुद्रा का संबंध बोधगया के निकट उरूवेला नामक ग्राम (आधुनिक नाम बकरौर नामक ग्राम) में बुद्ध बनने की दिशा में तपस्वी सिद्धार्थ की कठोर तपस्या के संकल्प से जुड़ा है।
माथाकुंवर बुद्ध मंदिर की यह प्रतिमा उसी ‘भूमिस्पर्श मुद्रा’ में है, जिसमें तपस्वी सिद्धार्थ ,पद्मासन में बैठे, भूमाता का स्पर्श कर संकल्प लेते उत्कीर्ण (बनाए) किए गए हैं। नालंदा विश्वविद्यालय के ध्वंसावशेषों के निकट स्थित ‘कृष्ण बुद्ध’  (तेलहवा बाबा) मंदिर भी माथा कुंवर मंदिर जैसी काले/नीलाश्म बलुआ पत्थर से बनी भूमिस्पर्श मुद्रा की मूर्ति स्थित है।
हिंदू धर्म के लोग करते थे पूजा
नारायण के नवें अवतार के रूप में भगवान बुद्ध हिंदू समाज द्वारा भी पूजित हैं। भूमिस्पर्श मुद्रा की इस प्रतिमा के साथ ही आनुसंगिक रूप से अष्टभुजी दुर्गा, पद्मपाणि विष्णु, कुबेर, गंगा तथा यमुना जैसी दैवीय प्रतिमाएं भी उत्कीर्ण हैं जो हिंदू तथा बौद्ध धर्म के एक मूल तथा एकनिष्ठता को भी अभिव्यक्त करती हैं। प्रतिमा तथा पूजा यह भी दर्शाती हैं कि हिंदू व बौद्ध धर्म के लोगों में शुरू से ही कोई मतभेद नहीं रहा है और दोनों एक दूसरे के धर्म का आदर करते हुए पूजा पाठ करते रहे हैं।
बोधि प्राप्ति के लिए बुद्ध ने लिया था कठोर व्रत
कुशीनगर के गाइड डॉ. अभय राय के अनुसार राजकुमार सिद्धार्थ को ज्ञान की खोज में घर छोड़े लगभग छह वर्ष बीतने को थे। सिद्धार्थ यहां वहां ज्ञान की खोज में घूमते फिरते तथा विभिन्न आचार्यों के मत मतांतरों का परीक्षण करते हुए उरूवेला पहुंचे। हालांकि पुराणों में इस स्थल को धर्मारण्य के नाम से संबोधित किया गया है, किंतु बौद्ध साहित्य इसे उरूवेला के नाम से संबोधित करते दिखते हैं।
इस स्थल उरूवेला (धर्मारण्य) की अवस्थिति दो महान नदियों- फल्गू तथा निरंजना के बीच के दोआब में है और उरूवेला के निकट ही इन दोनों नदियों का संगम स्थल स्थित होने के कारण उरूवेला में ये दोनों नदिया समानांतर रूप में एक दूसरे के निकट बहती हैं।
एक दिन राजकुमार सिद्धार्थ ने भी पद्मासन लगाकर भू-माता को स्पर्श करके संकल्प ले लिया – ‘ऐ धरती माता,आज के बाद जब तक मैं बोधि प्राप्त न कर लूं तब तक भोजन का एक दाना तक ग्रहण नहीं करूंगा। यही संकल्प अंतत: उनके बुद्ध बनने का पूर्व चरण अर्थात प्राक्बोधि तपस्या बना जिसके कारण यह ‘भूमिस्पर्श मुद्रा’ बौद्ध जगत में अत्यंत महत्वपूर्ण मानी जाती है।