कहते है की वनवास के दौरान भगवान श्री राम-सीता एवं लक्ष्मण इस गुफा में रुके थे. जानकारी के अनुसार इस गुफा में आदिमानवों के साक्ष्य मिले हैं जिनके अनुसार कहा जा रहा है की वह भी यहाँ रह चुके है. इस गुफा में शोध के नाम पर फेमस ब्लाइंट फिश को अक्सर रिसर्चर ले जा रहे हैं. अब इस कुंड में मछलियां नजर नहीं आ रही हैं. इन दिनों सोशल मीडिया पर भी एक फोटो काफी वायरल हो रहा है. जिसमें इन कुंड से मछलियों को पकड़ते हुए दिखाया गया है। लेकिन इस बात पर कांगेर राष्ट्रीय उद्यान की प्रभारी दिव्या गौतम ने कहा है की यह फोटो काफी पुराना है.।
जानकारी के अनुसार कोटमसर गुफाओं की खोज 1958 में बिलासपुर के रहने वाले एक प्रोफेसर शंकर तिवारी ने की थी. प्रो. तिवारी एक समय इन गुफाओं में वह के स्थानीय आदिवासियों की सहायता से जरूरत का सामान लेकर इस गुफा में प्रवेश किया था.।
जब उन्होंने गुफा में प्रवेश किया तो उन्होंने देखा पानी के लगातार कटाव के चलते चूना पत्थर पहाड़ में तब्दील हो गए है. जिससे पहाड़ पर कई तरह की आकृतियां बन गई हैं. गुफा के अंदर पोखरों में उन्हें आंखों से न देख पाने वाली मछलियां भी मिली. उन मछलियों का रंग खून की तरह लाल होता है. इन मछलियों के साथ साथ उन्होंने इस गुफा में एक नई जीव प्रजाति को भी ढूंढ निकाला. वह जिव दीखता तो मछली की तरह ही है. लेकिन उस जिव की 15-25 सेंटीमीटर लंबी मूंछ हैं. उन्होंने इस जानवर का नाम च्कैम्पिओला शंकराईज् रखा.। कोटमसर गुफाओं के अंदर सूरज की रोशनी नहीं पहुंच पाती है. जानकारी के अनुसार इन गुफाओं में लाखों वर्षों तक अँधेरे में रहते हुए मछलियों की आंखों का प्रयोग खत्म हो गया है, उन मछलियों की आखो पर एक झिल्ली सी चढ़ गई है, जिससे वह अंधी हो गई हैं.। साल वनों का द्वीप बस्तर में ना जाने कितने प्राकृतिक सौन्दर्य समाये हुये हैं। जिसमें कुछ तो उजागर हैं और कुछ गुमशुदा हैं। जिन्हें अब भी खोजने की कोशिश की जा रही है। बस्तर संभाग में लगभग 14 से अधिक जल प्रपात हैं और ना जाने कितने गुफा जंगलों में हैं लेकिन उजागर हुआ है चित्रकुट जलप्रपात और तीरथगढ़ जल प्रपात।
बस्तर मुख्यालय जगदलपुर से चालीस किलो मीटर दूर घने वनक्षेत्र में आज से 78 साल पहले शिकार करने आये अंग्रेजों के बाद इस इलाके का सर्वे किया गया था। इसी खोज के दौरान कोटमसर गुफा नजर आया। प्राकृतिक रूप से कोटमसर गुफा आज भी वैसी के वैसी है और कोई तब्दील नहीं किया गया है।
कांगेर घाटी राष्ट्रीय उद्यान में स्थित यह गुफा भारत की अकेली जबकि दुनिया की सातवीं भूमिगत गुफा है। यहां कहीं-किसी ओर से सूर्य की रोशनी नहीं पहुंचती। पेट्रोमैक्स, टार्च व गाइड की मदद से ही यहां पहुंचा जा सकता है। माना जाता है कि इसकी खोज वर्ष 1900 के आसपास आखेट करने वाले आदिवासियों ने की थी। इसका पुराना नाम गुपानसर गुफा है। इसमें प्रवेश का एक ही मार्ग है। बरसाती नाला गुफा से होकर बहता है और इसका पानी पत्थरों के खोह से होते हुए कांगेर नदी में चला जाता है। बारिश के मौसम में यह गुफा बंद कर दिया जाता है।
वर्ष 1951 में बिलासपुर के डॉ शंकर तिवारी ने पहली बार गुफा का सर्वे किया था। इनके सम्मान में यहां पाई जाने वाली मछलियों का नाम कैम्पियोला शंकराई रखा गया। यह प्राकृतिक गुफा 40 मीटर गहरी, 330 मीटर चौड़ी और 4500 मीटर लंबी है। गुफा के भीतर सतह से लेकर छत तक स्टेलेक्टाईट स्टेलेग्माईट चूना पत्थर की खूबसूरत व अद्भुत संरचनाएं बनी हुई है जो चूना पत्थर के रिसाव, कार्बन डाईऑक्साइड तथा पानी की रासायनिक क्रिया से बनी हैं। गुफा के भीतर 300 मीटर लंबा-चौड़ा सभागारनुमा एक कक्ष है। इसकी खोज वर्ष 2011 में हुई। इसके अलावा भी छोटे-छोटे कई कक्ष हैं। इसी गुफा में कथित अंधी मछलियां पाई जाती हैं।
उस इलाके के आदिवासी प्रमुख बताते हैं के उनके पूर्वज जब अंध्ंोरे गुफा में लालटेन लेकर प्रवेश किया गया तब उन्हें गुफा के अंदर जो पानी का जमाव था उसमें कुछ मछलियंा दिखी। कुछ मछलियों को पकड़कर गुफा से बाहर लाया क्योंकि ये मछलियां अजीब सी दिखाई दे रही थीं। आदिवासियों ने इन मछलियों को अंधी मछली का नाम दिया।
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