शिक्षा में समावेशिता: दिव्यांग बच्चों के अधिकारों की रक्षा
भारत संयुक्त राष्ट्र के दिव्यांग व्यक्तियों के अधिकारों पर अभिसमय (UNCRPD) का हस्ताक्षरकर्ता है, और इसीलिए संसद ने वर्ष 2016 में दिव्यांग व्यक्तियों के अधिकार अधिनियम (RPWD) को पारित किया। यह अधिनियम दिव्यांग बच्चों को शिक्षा के क्षेत्र में समान अवसर प्रदान करने पर ज़ोर देता है। मद्रास उच्च न्यायालय ने हाल ही में एक महत्वपूर्ण फैसले में तमिलनाडु सरकार को इस अधिनियम के प्रावधानों को प्रभावी ढंग से लागू करने और सभी शैक्षणिक संस्थानों में समावेशी शिक्षा सुनिश्चित करने की याद दिलाई है। सरकार की ओर से दिव्यांग बच्चों के प्रति संवेदनशीलता में कमी और अधिनियम के उद्देश्यों को पूरा करने में विफलता चिंता का विषय है। आइये विस्तार से देखें कैसे यह मुद्दा आगे बढ़ रहा है और क्या है इसके समाधान।
दिव्यांग बच्चों के अधिकार और RPWD अधिनियम
RPWD अधिनियम के प्रमुख प्रावधान
RPWD अधिनियम के विभिन्न धाराएँ दिव्यांग बच्चों के शिक्षा के अधिकार को स्पष्ट रूप से परिभाषित करती हैं। धारा 16 यह सुनिश्चित करती है कि सभी शैक्षणिक संस्थान बिना किसी भेदभाव के दिव्यांग बच्चों को दाखिला दें और उन्हें अन्य बच्चों के समान शैक्षिक और पाठ्येतर गतिविधियों में भाग लेने का अवसर प्रदान करें। यह अधिनियम सार्वभौमिक रूप से सुलभ बुनियादी ढांचे की आवश्यकता पर भी बल देता है। धारा 17 राज्य सरकार को दिव्यांग बच्चों की पहचान करने और उनकी विशेष आवश्यकताओं का आकलन करने के लिए पंचवार्षिक सर्वेक्षण करने का निर्देश देती है। साथ ही, सांकेतिक भाषा, ब्रेल आदि में प्रशिक्षित शिक्षकों को प्रशिक्षित करने के लिए पर्याप्त संस्थान स्थापित करने की आवश्यकता पर ज़ोर दिया गया है। धारा 34 यह स्पष्ट करती है कि 6 से 18 वर्ष के आयु वर्ग के प्रत्येक बच्चे को, जिसकी विकलांगता 40% या उससे अधिक है, पड़ोस के स्कूल या अपनी पसंद के विशेष स्कूल में मुफ्त शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार है।
अधिनियम की चुनौतियाँ और कमीयाँ
हालांकि RPWD अधिनियम दिव्यांग बच्चों के लिए एक व्यापक रूपरेखा प्रदान करता है, फिर भी इसके क्रियान्वयन में कई चुनौतियाँ हैं। सरकार द्वारा कई पदों को लंबे समय से रिक्त रखा जाना एक गंभीर समस्या है। मद्रास उच्च न्यायालय द्वारा उल्लेखित आँकड़े बताते हैं कि मार्च 2022 से लगभग 22 सरकारी स्कूलों में लगभग 38% स्वीकृत पद रिक्त पड़े हैं। इन रिक्त पदों के कारण अधिनियम के उद्देश्य ही विफल हो रहे हैं। इसके अलावा, शिक्षकों के प्रशिक्षण और योग्यता के मानकों को लेकर भी अस्पष्टता बनी हुई है, जिससे दिव्यांग बच्चों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्राप्त करने में कठिनाई होती है।
उच्च न्यायालय का निर्णय और इसके निहितार्थ
मद्रास उच्च न्यायालय ने अपने फैसले में तमिलनाडु सरकार को स्पष्ट निर्देश दिए हैं कि वह दिव्यांग बच्चों के लिए समावेशी शिक्षा सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक कदम उठाए। न्यायालय ने खाली पदों को भरने और योग्य शिक्षकों की नियुक्ति करने पर जोर दिया है। इस फैसले ने शिक्षा में समावेशिता के महत्व को रेखांकित किया है और सरकार को अपने दायित्वों को पूरा करने के लिए प्रेरित किया है। यह फैसला सिर्फ तमिलनाडु के लिए नहीं, बल्कि देश के अन्य राज्यों के लिए भी एक प्रेरणा है, जहाँ समान चुनौतियाँ मौजूद हो सकती हैं। इसके साथ ही, इसने विशेष शिक्षा के क्षेत्र में आवश्यक योग्यता और मानकों पर भी प्रकाश डाला है।
न्यायालय द्वारा उठाये गए मुद्दे
न्यायालय ने विशेष शिक्षकों के पदों के रिक्त रहने, और पर्याप्त प्रशिक्षित शिक्षकों की कमी पर गंभीर चिंता व्यक्त की। यह बात उजागर हुई की सरकारी स्कूलों में दिव्यांग बच्चों के लिए समावेशी शिक्षा प्रदान करने के उद्देश्य से कई पद लंबे समय से खाली पड़े हैं, जोकि अधिनियम के उद्देश्यों के खिलाफ है।
समावेशी शिक्षा के लिए आवश्यक कदम
शिक्षकों का प्रशिक्षण और विकास
दिव्यांग बच्चों के साथ प्रभावी ढंग से कार्य करने के लिए शिक्षकों को विशेष प्रशिक्षण की आवश्यकता होती है। सरकार को शिक्षकों के लिए नियमित प्रशिक्षण कार्यक्रमों का आयोजन करना चाहिए ताकि वे दिव्यांग बच्चों की विभिन्न आवश्यकताओं को समझ सकें और उन्हें बेहतर शिक्षा प्रदान कर सकें। इस प्रशिक्षण में सांकेतिक भाषा, ब्रेल, और अन्य सहायक तकनीकों का प्रशिक्षण शामिल होना चाहिए।
बुनियादी ढांचे का विकास
समावेशी शिक्षा के लिए भौतिक संरचना भी बहुत महत्वपूर्ण है। स्कूलों में ऐसे बुनियादी ढांचे का विकास होना चाहिए जो सभी बच्चों के लिए सुलभ हो, चाहे वे किसी भी प्रकार की विकलांगता से पीड़ित हों। इसमें शारीरिक बाधाओं को दूर करना, ब्रेल लिपि और अन्य सहायक उपकरणों की व्यवस्था करना शामिल है।
जागरूकता अभियान
समावेशी शिक्षा को सफल बनाने के लिए जन जागरूकता भी अत्यंत आवश्यक है। सरकार को अभिभावकों, शिक्षकों और समुदाय के अन्य सदस्यों के बीच जागरूकता अभियान चलाने चाहिए ताकि वे दिव्यांग बच्चों के अधिकारों और उनकी आवश्यकताओं को समझ सकें।
नीतियों और कार्यक्रमों का कार्यान्वयन
सरकार को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि RPWD अधिनियम के प्रावधान प्रभावी रूप से लागू किए जाएं। इसमें दिव्यांग बच्चों की पहचान करने, उनकी आवश्यकताओं का आकलन करने और उन्हें उपयुक्त शिक्षा और सहायता प्रदान करने की प्रक्रिया को सुव्यवस्थित करना शामिल है।
निष्कर्ष:
दिव्यांग बच्चों को समावेशी शिक्षा प्रदान करना न केवल उनका अधिकार है, बल्कि एक नैतिक दायित्व भी है। सरकार और संबंधित अधिकारियों को यह सुनिश्चित करने के लिए सभी आवश्यक कदम उठाने चाहिए कि दिव्यांग बच्चे भी अपनी पूरी क्षमता तक पहुँच सकें। मद्रास उच्च न्यायालय का फैसला इस दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है, और आशा है कि यह देश भर में समावेशी शिक्षा के प्रयासों को मज़बूत करेगा।
मुख्य बिन्दु:
- RPWD अधिनियम दिव्यांग बच्चों के शिक्षा के अधिकारों को सुनिश्चित करता है।
- अधिनियम के प्रभावी क्रियान्वयन में चुनौतियाँ हैं।
- मद्रास उच्च न्यायालय ने सरकार को समावेशी शिक्षा सुनिश्चित करने का निर्देश दिया है।
- समावेशी शिक्षा के लिए शिक्षकों का प्रशिक्षण, बुनियादी ढाँचा और जागरूकता अभियान आवश्यक हैं।
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