भारत में दवाओं की कीमतों में 50% की वृद्धि: एक गहन विश्लेषण
भारत में दवाओं की कीमतें हमेशा से ही एक महत्वपूर्ण मुद्दा रही हैं। सरकार की ओर से आम जनता की पहुँच और किफ़ायती दवाओं की उपलब्धता सुनिश्चित करने के प्रयासों के बीच, हाल ही में की गई कीमतों में 50% की वृद्धि ने कई सवाल खड़े कर दिए हैं। यह लेख इस वृद्धि के पीछे के कारणों, दवा मूल्य नियंत्रण प्रणाली और इसके भावी निहितार्थों पर प्रकाश डालता है।
दवा मूल्य वृद्धि के कारण और तर्क
सरकार द्वारा दिए गए तर्क:
अक्टूबर 2023 में, राष्ट्रीय फार्मास्युटिकल मूल्य प्राधिकरण (NPPA) ने आठ दवाओं की अधिकतम कीमतों में 50% की वृद्धि की घोषणा की। सरकार ने इस निर्णय के पीछे “असाधारण परिस्थितियाँ” और “सार्वजनिक हित” का तर्क दिया। यह वृद्धि अस्थमा, क्षय रोग, द्विध्रुवी विकार और ग्लूकोमा जैसी सामान्य बीमारियों के इलाज में उपयोग की जाने वाली दवाओं को प्रभावित करती है। सरकार का कहना है कि कच्चे माल (Active Pharmaceutical Ingredients – APIs) की बढ़ती लागत, उत्पादन लागत में वृद्धि और विनिमय दर में बदलाव के कारण दवा उत्पादन और विपणन व्यवहार्य नहीं रहा है। निर्माताओं ने कई फार्मूलेशन को बंद करने के लिए भी आवेदन दिया था क्योंकि उनकी लागत अनुरक्षण योग्य नहीं थी।
NPPA का दृष्टिकोण:
NPPA का काम जरूरी दवाओं को किफायती दामों पर उपलब्ध कराना है। उन्होंने स्पष्ट किया कि कीमत नियंत्रण से यह सुनिश्चित करना जरूरी है कि ये दवाएँ उपलब्ध बनी रहें और इस नियंत्रण से उनकी उपलब्धता कम न हो जाए। उन्होंने बताया कि वे निर्माताओं के आवेदनों पर विचार कर रहे हैं और सार्वजनिक हित को ध्यान में रखते हुए फैसले ले रहे हैं।
भारत में दवा मूल्य नियंत्रण प्रणाली
DPCO और NPPA की भूमिका:
1997 में गठित NPPA, “ड्रग प्राइस कंट्रोल ऑर्डर” (DPCO) के तहत दवाओं की अधिकतम कीमतों को नियंत्रित करता है। यह आवश्यक वस्तु अधिनियम के तहत सरकार द्वारा जारी किया गया है। NPPA DPCO, 2013 के पैरा 19 के तहत अपनी विशेष शक्तियों का इस्तेमाल करते हुए कीमतों में वृद्धि की अनुमति देता है। यह प्रावधान असाधारण परिस्थितियों में सार्वजनिक हित के लिए कीमतें निर्धारित करने या पहले से निर्धारित कीमतों में बदलाव करने की अनुमति देता है।
वार्षिक मूल्य पुनरीक्षण:
हर वित्तीय वर्ष की शुरुआत में, NPPA पिछले वर्ष के थोक मूल्य सूचकांक (WPI) के आधार पर दवाओं की अधिकतम कीमतों में वृद्धि करती है। इस प्रक्रिया के अलावा, DPCO, 2013 के तहत अन्य दवाओं की कीमतों पर भी नज़र रखता है। जो कंपनियां निर्धारित कीमतों से ज़्यादा पर दवाएँ बेचती हैं, उनके खिलाफ कार्रवाई की जाती है और ज़्यादा ली गई रकम वसूल की जाती है।
सार्वजनिक स्वास्थ्य पर प्रभाव और चिंताएं
गरीबों पर प्रभाव:
दवाओं की कीमतों में वृद्धि से गरीब और कमज़ोर वर्ग सबसे अधिक प्रभावित होते हैं। कई लोगों के लिए, ये महंगी दवाएँ खरीदना असंभव हो सकता है, जिससे उनके स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है। यह विशेष रूप से उन बीमारियों के लिए चिंता का विषय है जो लंबे समय तक चलने वाली दवाओं की आवश्यकता होती हैं।
उपलब्धता पर चिंताएँ:
हालांकि सरकार का तर्क है कि कीमत में वृद्धि से दवाओं की उपलब्धता सुनिश्चित होगी, कुछ लोग चिंतित हैं कि इससे उत्पादन कम हो सकता है और अंततः दवाएँ कम उपलब्ध होंगी। इसके विपरीत सरकार की ओर से दवाओं की उपलब्धता में कमी आने से रोकने और मूल्य नियंत्रण की स्थिरता को बनाये रखने की क्षमता पर संदेह बढ़ता जा रहा है।
निष्कर्ष और आगे का रास्ता
दवाओं की कीमतों में वृद्धि एक जटिल मुद्दा है जिसमें सार्वजनिक स्वास्थ्य, औषधि उद्योग और आर्थिक वास्तविकताओं को संतुलित करने की आवश्यकता है। सरकार को यह सुनिश्चित करने के लिए एक संतुलित दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता है कि आवश्यक दवाएँ किफ़ायती और आसानी से उपलब्ध रहें, साथ ही दवा कंपनियों को भी अपने उत्पादन को बनाए रखने में सक्षम होना चाहिए। पारदर्शिता और प्रभावी मूल्य नियंत्रण तंत्र स्थापित करना आगे की राह को सुगम बना सकता है।
टेक अवे पॉइंट्स:
- भारत में दवाओं की कीमतों में 50% की वृद्धि हुई है।
- सरकार ने “असाधारण परिस्थितियों” और “सार्वजनिक हित” का हवाला दिया है।
- NPPA DPCO, 2013 के तहत कीमतों को नियंत्रित करता है।
- गरीबों और कमज़ोर वर्गों पर इस वृद्धि का सबसे ज्यादा असर पड़ सकता है।
- पारदर्शिता और प्रभावी मूल्य नियंत्रण आवश्यक हैं।
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