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Rectal Cancer का खतरा बढ़ा रहे ऐंटीबायॉटिक्स

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सर्दी-खांसी, बुखार या फिर किसी छोटी-मोटी बीमारी के लिए भी अगर आप ऐलोपैथिक डॉक्टर के पास जाते हैं तो डॉक्टर सबसे पहले 3 या 5 दिन की ऐंटीबायॉटिक दवा का कोर्स लिख देते हैं ताकि मरीज जल्दी ठीक हो जाए। कई बात तो बिना डॉक्टर से पूछे भी बहुत से लोग बीमार होने पर ऐंटीबायॉटिक खा लेते हैं। अगर आप भी ऐसा करते हैं तो सावधान हो जाइए क्योंकि इससे कोलोन या रेक्टल कैंसर का खतरा बढ़ जाता है।

ऐंटीबायॉटिक्स का हो रहा है ज्यादा इस्तेमाल

एक नई स्टडी में यह बात सामने आयी है कि सिंगल कोर्स ऐंटीबायॉटिक के सेवन से भी कोलोन यानी मलाशय का कैंसर होने का खतरा बढ़ जाता है। Gut नाम के जर्नल में प्रकाशित इस स्टडी में इस बात पर जोर दिया गया है कि कैसे ऐंटीबायॉटिक- दवा की इस कैटिगरी का समझदारी से इस्तेमाल करने की जरूरत है क्योंकि डॉक्टर्स भी इसे जरूरत से ज्यादा प्रिस्क्राइब कर रहे हैं और इसका बहुत ज्यादा यूज हो रहा है।

ऐंटीबायॉटिक के इस्तेमाल की हमारी लापरवाही से यह लाइलाज महामारी

अमेरिका में भारतीय सुपरबग के कारण एक महिला की मौत हो गई है। पता चला है कि दुनिया की कोई भी ऐंटीबायॉटिक इस संक्रमण का इलाज नहीं कर सकती है।साल 2008 में भारतीय मूल की एक स्वीडिश महिला के अंदर पहली बार यह सुपरबग पाया गया था। डॉक्टरों ने इसे न्यू डेली मेटालो-बीटा-लेक्टामेस (NDM) का नाम दिया है। इस खबर से अगर आपको डर लग रहा है, तो बिल्कुल सही लग रहा है। इसके नतीजे इतने भयानक हो सकते हैं, जिसका शायद आप ठीक-ठीक अनुमान भी ना लगा सकें। यह सुपरबग हम भारतीयों की लापरवाही के कारण पैदा होता है। एक ऐसी लापरवाही जो अगर तत्काल ना रोकी गई, तो आने वाले समय में एक भयंकर लाइलाज महामारी का रूप ले लेगी। इसकी चपेट में ना केवल भारत, बल्कि पूरी दुनिया आ सकती है। आगे की स्लाइड्स में इसके बारे में विस्तार से जानिए…
भारत में यह बीमारी दिनोंदिन अपने पैर फैला रही है। न्यू यॉर्क टाइम्स में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक, साल 2013 में करीब 58,000 नवजात और छोटे बच्चे इसके कारण मारे गए। ये नवजात ऐसी बीमारी के साथ पैदा होते हैं, जिसपर कोई भी ऐंटीबायॉटिक असर नहीं करती।ऐसा नहीं कि मरने वालों में सिर्फ नवजात हैं। नवजातों को यह बीमारी मां के गर्भ में मिल रही है। इसका मतलब, बड़ी संख्या में वयस्क भी इस जानलेवा स्थिति के शिकार हो रहे हैं।सोचिए, बीमार पड़ने पर दवाओं से इलाज कर लेते हैं, लेकिन अगर आपकी बीमारी का दुनिया भर में कोई इलाज ही ना हो, तो? सोचिए कि एक छोटा सा घाव भरने की जगह आपकी जान ही ले ले?

पिछली बार जब आप बीमार पड़े थे, तब आपने जो दवा खाई वह क्या डॉक्टर की सलाह लेकर खाई? बिना डॉक्टर के पास गए कितनी बार आपने खुद ही दवा की दुकान से ऐंटीबायॉटिक खरीदकर अपना इलाज किया?आपको लगा कि आप डॉक्टर के पास नहीं जाकर अपने पैसे बचा रहे हैं, लेकिन असल में आपकी यह आदत एक वैश्विक महामारी का रूप ले सकती है। बिना जरूरत के और बिना चिकित्सीय सलाह के दवा लेना आपको बहुत बहुत बहुत ज्यादा बीमार कर सकता है।इसके कारण आपके शरीर की रोग से लड़ने की क्षमता खत्म हो सकती है। इसके कारण आपके शरीर में ऐसी स्थिति पैदा हो सकती है, जहां कोई भी ऐंटीबायॉटिक आपकी बीमारी का इलाज नहीं कर सकेगी। सर्दी और न्यूमोनिया जैसी साधारण बीमारियां आपकी जान ले सकती हैं। एक छोटा सा घाव बढ़कर आपके मौत की वजह बन सकता है।

न्यू यॉर्क टाइम्स की रिपोर्ट के मुताबिक, 2008 के बाद भारतीय अस्पतालों में मल्टीड्रग रेज़िस्टेंट इंफेक्शन्स से ग्रस्त मरीजों की संख्या अप्रत्याशित तौर पर बढ़ रही है।शोधकर्ताओं का कहना है कि भारत में ऐसे जीवाणु बड़ी संख्या में मौजूद हैं, जिनपर किसी भी ऐंटीबायॉटिक का कोई असर नहीं होता। यहां के पानी, नालों, जानवरों, मिट्टी और बड़ी तादाद में इंसानों के अंदर ऐसे जीवाणु पाए गए हैं, जिनका इलाज दुनिया की कोई भी ऐंटीबायॉटिक दवा नहीं कर सकती है।

भारत में ऐंटीबायॉटिक के इस्तेमाल को लेकर जागरूकता का इतना अभाव है कि लोग सर्दी और जुकाम जैसी स्थिति में भी ऐंटीबायॉटिक खा लेते हैं। याद रखिए, केवल जीवाणुओं के संक्रमण में ऐंटीबायॉटिक असर करता है, फंगल और वायरल संक्रमण पर नहीं।बिना डॉक्टरी सलाह के ऐंटीबायॉटिक खाना ऐसा ही है जैसे कि आप जहर खाकर बीमारी का इलाज कर रहे हैं।

भारत के मशहूर संगीतज्ञ यू. श्रीनिवास का 45 साल की उम्र में निधन हो गया। उन्हें ऐसा संक्रमण हुआ था, जिसका इलाज दुनिया के किसी भी डॉक्टर के पास नहीं था। भारतीय अस्पताल तो ऐसे लाइलाज संक्रमणों का कारखाना ही बन गए हैं।​भारतीय अस्पतालों में कितनी भीड़ होती है, यह किसी से नहीं छुपा। यहां साफ-सफाई के इंतजाम भी सही नहीं होते हैं। शौचालय गंदे होते हैं, हाथ धोने का साबुन मौजूद नहीं होता और पानी गंदा होता है। ऐसे में इस तरह के लाइलाज जीवाणुओं के संक्रमण का खतरा और भी बढ़ जाता है। इनके फैलने की संभावना और मजबूत हो जाती है।

भारत में साफ-सफाई को लेकर जागरूकता बहुत कम है। यहां ऐंटीबायॉटिक्स के बिकने पर लंबे समय तक कोई पाबंदी नहीं थी।अभी भी, आप बिना डॉक्टर की पर्ची के आसानी से किसी दवा दुकान में जाकर ऐंटीबायॉटिक खरीद सकते हैं। इसके कारण ऐंटीबायॉटिक्स के बेअसर होने के मामलों की सुनामी आ गई है। ऐसा नहीं कि इसके कारण केवल भारत पर ही संकट है, बल्कि भारत की सीमाओं से निकलकर यह संक्रमण दुनिया के कोने-कोने तक फैल रहा है।

कई शोधों में पाया गया है कि विकसित देशों के मुकाबले विकासशील देशों में ऐसे जीवाणुओं की मौजूदगी ज्यादा है, जो कि ऐंटीबायॉटिक्स के प्रतिरोधक होते हैं। भारत इस मामले में पहले नंबर पर है।विशेषज्ञों के मुताबिक, भारत में जीवाणुओं का प्रसार बेहद आसान है। बड़ी संख्या में अब भी भारतीय खुले में शौच करते हैं। इसके अलावा जो लोग शौचालयों का इस्तेमाल करते भी हैं, उनके यहां से निकलने वाला मल बिना किसी उपचार के नालों और नदियों-तालाबों में बहा दिया जाता है। दुनिया में जीवाणुओं से संक्रमित होने में भारतीय सबसे आगे हैं। किसी भी अन्य देश के मुकाबले भारतीय कहीं ज्यादा ऐंटीबायॉटिक इस्तेमाल करते हैं।

स्वास्थ्य और चिकित्सा के क्षेत्र से जुड़े लोग दशकों से ऐंटीबायॉटिक्स के बेतहाशा इस्तेमाल को लेकर चेतावनी दे रहे थे। 20वीं सदी में ऐंटीबायॉटिक्स की खोज एक चमत्कार जैसी थी।​इसके कारण इंसानों की जिंदगी काफी बेहतर हुई। अब ऐंटीबायॉटिक के अनियंत्रित और बेतहाशा इस्तेमाल के कारण ऐसी स्थिति पैदा हो गई है, जहां जीवाणु बेहद मजबूत हो जाते हैं। जीवाणु इतने प्रबल हो जाते हैं कि उनपर कोई ऐंटीबायॉटिक असर नहीं करती। सितंबर 2014 में ओबामा प्रशासन ने इस समस्या से निपटे के लिए उपायों की घोषणा की। अमेरिकी अधिकारियों ने इसे राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए गंभीर खतरा बताया।

डॉक्टर्स का कहना है कि भारत में स्वच्छता और साफ-सफाई की बेहतर मौजूदगी नहीं होने के कारण संक्रमण के खतरों को कम करने के लिए ऐंटीबायॉटिक्स पर निर्भरता काफी बढ़ जाती है।नतीजन, ऐंटीबायॉटिक्स बेअसर हो रहे हैं और सबसे ज्यादा असर नवजात बच्चों पर पड़ रहा है। भारत के टॉप शिशु रोग विशेषज्ञों का मानना है कि तुरंत पैदा होने वाले नवजातों के अंदर इस तरह के संक्रमणों की मौजूदगी बताती है कि समाज और गर्भवती महिलाओं के अंदर बड़ी संख्या में ऐसे जीवाणु मौजूद हैं।

न्यू यॉर्क टाइम्स ने साल 2014 में भारत भर के कई अस्पतालों में डॉक्टर्स से बात की थी। पाया गया कि ज्यादातर नवजात शिशु ऐसे संक्रमण के साथ पैदा हो रहे हैं, जिनपर कोई ऐंटीबायॉटिक असर नहीं करती।​भारत में हर साल बड़ी संख्या में विदेशों से लोग इलाज कराने आते हैं। सुपरबग की खोज भारत के इस फलते-फूलते कारोबार को भी खत्म कर सकती है। टीबी का इलाज कराने वालों, ऑपरेशन कराने वालों, कैंसर के मरीजों या फिर ऑर्गन-हड्डी ट्रांसप्लांट कराने वाले लोगों को सुपरबग के संक्रमण का खतरा काफी ज्यादा होता है।

भारत में टीबी के सबसे ज्यादा मरीज पाए जाते हैं। हाल में हुए कई शोधों में जनेटिक्स जांच से पता चला कि टीबी के जिन मरीजों का इलाज नहीं हुआ, उनमें से करीब 10 फीसद रोगी ऐसे हैं, जिनके अंदर सुपरबग पाया गया। उनके संक्रमण का किसी भी ऐंटीबायॉटिक से इलाज नहीं हो सकता है।

सबसे डरावनी बात यह है कि इन मरीजों को अस्पतालों में नहीं, बल्कि अपने घरों पर यह संक्रमण हो रहा है। ऐसे में इस महामारी को रोकना काफी मुश्किल है।नैशनल इंस्टिट्यूट फॉर रिसर्च इन टीबी की निदेशक डॉक्टर सौम्या स्वामीनाथन ने एक विदेशी अखबार को दिए गए अपने इंटरव्यू में बताया था कि अगर सरकार गंभीर और तत्काल कार्रवाई नहीं करती है, तो जल्द ही भारत में टीबी लाइलाज बीमारी हो जाएगी। इसके मरीजों को किसी भी ऐंटीबायॉटिक से ठीक नहीं किया जा सकेगा।

हाल के वर्षों तक डॉक्टर्स बच्चों को संक्रमण के खतरे से बचाने के लिए हाथ खोलकर ऐंटीबायॉटिक के टीके लगाया करते थे। कई जगहों पर तो यह बदस्तूर चालू है। ये संक्रमण ज्यादातर साफ-सफाई के अभाव में होते हैं। अब इस बारे में मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया गंभीरता दिखा रही है।

डॉक्टर्स के बीच जागरूकता बढ़ तो रही है, लेकिन स्थिति अब भी बेहद गंभीर है। और तो और, वैज्ञानिकों ने पशुपालन पर एक शोध किया।इसमें जिन मुर्गे-मुर्गियों की जांच की गई, उनमें से 40 फीसद के अंदर ऐसे जीवाणु पाए गए जिनपर कोई भी ऐंटीबायॉटिक्स असर नहीं करती। ऐसे मुर्गों को जब लोग खाते हैं, तो ये जीवाणु उनके अंदर भी चले जाते हैं।

क्यों करते हैं ऐंटीबायॉटिक्स का इस्तेमाल- जो अक्सर गंभीर नहीं होते, लेकिन ठीक नहीं होने पर बाकी लोगों में फैल सकते हैं।- ऐसी बीमारियों में जहां ऐंटीबायॉटिक लेने से ठीक होने की रफ्तार तेज हो जाती है।- स्वास्थ्य से जुड़ी ऐसी परेशानी, जिसके ठीक ना होने पर कई और तरह की दिक्कतें हो सकती हैं।- जीवाणुओं से होने वाले संक्रमण के मामलों में।- कई बार ऐंटीबायॉटिक इलाज के लिए नहीं, बल्कि बचाव के लिए दिया जाता है।- फंगल और वायरल संक्रमण में ऐंटीबायॉटिक से कोई फायदा नहीं मिलता।

अब क्यों नहीं होता ऐंटीबायॉटिक्स का ज्यादा इस्तेमाल- ज्यादातर संक्रमण विषाणुओं के कारण होता है, जिनपर ऐंटीबायॉटिक का असर नहीं होता- ऐंटीबायॉटिक के इस्तेमाल से ठीक होने की प्रक्रिया तेज तो हो जाती है, लेकिन इसके कई साइड इफेक्ट भी हैं- छोटी-मोटी परेशानियों में ऐंटीबायॉटिक लेने पर गंभीर बीमारियों के संक्रमण को ठीक करने का उनका असर कम हो जाता है

किन्हें है जीवाणुओं के संक्रमण का ज्यादा खतरा- 75 से अधिक उम्र के लोग- नवजात बच्चे, खासतौर पर जन्म लेने के पहले 72 घंटों के दौरान- दिल की बीमारी के मरीज- डायबीटीज़ के ऐसे मरीज, जिन्हें इंसुलिन लेना पड़ता है- ऐसे लोग जिनके शरीर की रोग प्रतिरोध क्षमता कमजोर है

और कब हो सकता है इस्तेमाल- अगर आपका ऑपरेशन होने वाला है- जोड़ों का रिप्लेसमेंट होने वाला है- ब्रेस्ट इंप्लांट सर्जरी करा रही हैं- पेसमेकर लगाया जा रहा है- पित्ताशय निकाला जा रहा है- अपेंडिक्स निकाला जा रहा है- घाव होने या फिर जानवरों द्वारा काटे जानेपरचेतावनी: किसी भी स्थिति में बिना डॉक्टर की सलाह के दवा न खाएं। ऐंटीबायॉटिक का इस्तेमाल बिना डॉक्टरी सलाह के न करें। बिना डॉक्टर की पर्ची के अगर कोई दुकानदार ऐंटीबायॉटिक बेच रहा है, तो यह गैरकानूनी है। इसकी शिकायत करें।

साइड इफेक्ट की वजह से क्रॉनिक बीमारियों का खतरा
इस स्टडी की लीड ऑथर सिंथिया सियर्स कहती हैं, हमारी रिसर्च इस बात पर जोर देती है कि इस तरह की दवाइयों का शरीर पर कितना बुरा असर होता है और इनसे कई तरह की क्रॉनिक बीमारियां भी हो सकती हैं। इस स्टडी में यूके के 1 करोड़ 10 लाख मरीजों के डेटा की जांच की गई जिसमें जनवरी 1989 से दिसंबर 2012 यानी 23 साल के पीरियड की जांच हुई। इसमें करीब 28 हजार 890 मरीजों को कोलोरेक्टल कैंसर होने की बात सामने आयी।

ऐंटीबायॉटिक एक्सपोजर से मलाशय के कैंसर का खतरा
इन मेडिकल रिकॉर्ड्स का इस्तेमाल हर एक केस हिस्ट्री की जांच करने के लिए किया गया जिसमें कोलोन कैंसर के रिस्क फैक्टर्स जैसे- मोटापे का इतिहास, धूम्रपान, ऐल्कॉहॉल का सेवन, डायबीटीज और ऐंटीबायॉटिक के यूज पर भी ध्यान दिया गया। शोधकर्ताओं ने पाया कि जिन लोगों को कोलोन कैंसर हुआ वे ऐंटीबायॉटिक्स के प्रति ज्यादा एक्सपोज्ड थे।

धूम्रपान से ज्यादा खतरनाक है मोटापा

हाल ही में हुई एक स्टडी में यह बात सामने आई है कि मोटे लोगों में कैंसर होने का खतरा, धूम्रपान यानी स्मोकिंग करने वालों की तुलना में कई गुना अधिक होता है। यूके के कैंसर रिसर्च की तरफ से यह स्टडी करवायी गई थी। स्टडी के मुताबिक, यूके के करीब एक तिहाई लोग मोटापे का शिकार हैं जबकि स्मोकिंग अब भी कैंसर के उन कारकों में शामिल हैं जिन्हें रोका जा सकता है।

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