इस शहर में हर शख्स परेशान सा क्यों है
एक शहर में असीम संभावनाएं होती हैं. इसके कई छोटे इतिहास इसके भूगोल को व्यापक बनाते हैं. अत्यधिक काम से जूझ रही बेचैन आत्माओं, शहर के लाखों बाशिंदों के लिए शहर भौतिक रूप से मोक्ष पाने की एक जगह है. अनुशासित मोक्ष के लिए आपको एकांत चाहिए लेकिन शहर की हलचल में ऐसा संभव नहीं.
ऐसे में शहर रसिक को खुशी और उदास शख्स को एकांत देता है. मगर आजकल दिन धुएं और आलस से भरे हैं, जिनसे रंगीनमिजाज लोग भी उदास हैं और व्हाट्सएप-फेसबुक पर क्लिक कर-करके चिंता से मायूस हो रहे हैं.
ऐसे में शहर मशहूर जादूगर हुडिनी की तरह बर्ताव करने लगता है. इसकी कई इमारतें कई घंटों के लिए गायब हो जाती है. शहर पर जादू सा छा जाता है और बुराई इस कदर इसे मोहित करती है कि शहर पूरी तरह थम जाता है. उस वक्त शहर बेड़ियां में बंधा भीमकाय जीव भर रह जाता है, जिसमें सब कुछ छिपा होता है. सब पहचान खो चुके होते हैं.
शुरुआत में शहरयार की जिस पंक्ति का जिक्र हुआ है वह हमारे दूसरे महानगर जैसे मुंबई की चिंता को बड़े सारगर्भित रूप से दर्शाती है. यह आसानी से धुंध में लिपटे, सांस लेने को जूझते, आंखों की जलन, मानसिक स्थिति से परेशान भारत के नए महानगर का प्रतीक है.
70 के दशक में जब शहरयार ने ये लाइनें लिखी थीं तब मुंबईवासी दिल्ली को गंवार, पाकिस्तान से आए पंजाबी प्रवासियों के निम्न वर्ग समूह और बिहारी देहातियों के आने वाली जगह भर समझते थे. वे अभी भी ऐसा ही सोचते हैं हालांकि उसकी कहानी अलग है. इस पर धुंधरहित दिनों में लिखा जाएगा.
गार्सिया लोर्का ने कहा है कि किसी यात्री को बड़े शहरों में वास्तुकाल और तेज रफ्तार दिखाई देती है. उन्होंने आगे ज्यामिति और तड़प को भी इसमें जोड़ दिया. अगर गार्सिया को फासीवादियों ने मारा न होता तो उन्हें दिल्ली में ज्यामिति के बजाय गाजीपुर जैसे पीड़ा के ढेर पूरे शहर में दिखाई देते. यहां तक कि कोई भारतीय बर्नम (अमेरिकी राजनेता और कारोबारी थे जो बड़ी हस्तियों का छलावा बढ़ाने का काम करते थे) भी गार्सिया को दिल्ली में कोई ज्यामिति नहीं दिखा पाता.
आज वही चांदनी चौक एक चलते-फिरते डरावने सपने में बदल गया है. आज ग़ालिब होते तो वे अपनी कलम नीलाम कर चुके होते या मेरठ या कहीं और निकल जाते. इन सबके बाद, आह को चाहिए इक उम्र असर होने तक… आज अगर इस शहर के हालात देखें, जहाँ बिन धुंध के इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती, वहाँ एक उम्र मिलने की उम्मीद! तो ग़ालिब आज अपने अकेलेपन और अपनी शराब के साथ बल्लीमारान की गलियां छोड़ चुके होते.
उनकी असंयमी बातें शहर को लपेटे हुए जहरीली धुंध की मोटी परतों में शामिल हो जाती है. होलोकास्ट पर बनी क्लाउड लेंज़मेन की फिल्म ‘शोह’ गैस चैंबर शब्द को एक भयावह रूप देती है. इस फिल्म में मशीनी निर्दयता और अनवरत क्रूरता को शानदार तरीके से दिखाया गया है. सामूहिक श्मशान से निकली राख मिला धुआं उन कस्बों के ऊपर फैल जाता है जहां नाज़ी यहूदियों को गैस चैंबर में खत्म कर रहे होते थे. इसलिए एक शहर को गैस चैंबर कहकर क्या हम अपने खात्मे का मनहूस इशारा कर रहे हैं. अनजाने में ही सही लेकिन फिर भी…!
शहर, एक विशाल जानवर की तरह हर पल बदल रहा है. अगर पिछले साल के मीम्स इस साल भी जीवंत हो रहे हैं तो सोचने की बात है कि क्या वाकई शहर थोड़ा भी बदला है? क्या यह जानवर नींद की दवा के असर में है? तब तो कहना गलत नहीं होगा कि नींद की दवा एल्प्राजोलाम जीत गई है. शहर सो रहा है. उसकी धुंध की यादें, याद नहीं रखी जातीं क्योंकि कई कोहरे से भरी सर्दियां दस्तावेज़ों में दर्ज हो चुकी हैं. तब अब बन जाता है और अब तब में बदल जाता है.
जिस तरह दिल्ली का धुंध भरा खोखला कल धुंध से भरे वर्तमान से मिल रहा है, उसकी हक़ीक़त भी उसी तरह धुंधली हो रही है. बीता कल आसानी से आज में समा रहा है. तस्वीरें बीते हुए कल को मानों आज दिखा रही हैं.
मशहूर अंग्रेज़ कवि फिलिप लार्किन ने ब्रिटेन के उपनगरीय इलाक़ों पर मार्मिक ढंग से लिखा था कि एक शाम आ रही है, जो किसी दीये को रौशन नहीं करती. दिल्ली में शाम छोड़िए, एक सुबह आ रही है, जिसमें न रौशनी है और न आराम. धुएं में डूबी शामों पर बहस करते हुए ही हमारी सुबहें ज़ाया हो जाती हैं.
दिल्ली ने अपने लंबे, बेतरतीब इतिहास में कई चीज़ें देखी हैं. इन धुंध भरे, ख़तरनाक दिनों को अगर डेडली (Deadlhi) कहें, तो ग़लत नहीं होगा.
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