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क्या ऑड-ईवन ही केजरीवाल का ब्रह्मास्त्र है?

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क्या ऑड-ईवन ही केजरीवाल का ब्रह्मास्त्र है?

 

 

जरूरी नहीं कि आप शांतिनिकेतन के ‘बोधिवृक्ष’ के नीचे बैठे नौसिखुआ नौजवान हों तो ही आपको यह पता चले कि इतिहास अपने को दोहराता है- पहली दफे वह एक त्रासदी (ट्रेजडी) होता है और दूसरी दफे एक प्रहसन (फार्स) के तौर पर.

शांतिनिकेतन से कई गुना धूपछांही तो फिलहाल दिल्ली में है जहां इतिहास अपने को तीसरी दफे दोहरा रहा है. दिल्ली सरकार ने अपनी ऑड-ईवन योजना फिर शुरू करने की कोशिश की थी लेकिन फिर इसे वापस ले लिया.

ऑड-ईवन स्कीम पहली बार 2016 में शुरू हुई. तब 15 दिन तक चलने वाली इस योजना से राहत महसूस हुई थी. साउथ और सेंट्रल दिल्ली में अपनी मोबाइल यूनिट्स के जरिए दिल्ली प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने हवा की गुणवत्ता के जो आंकड़े जुटाए वे बता रहे थे कि पीएम 2.5 और पीएम 10 जैसे महीन कणों के एतबार से वायु-प्रदूषण कम हुआ है.

इस वक्त पहली बार खुली जगहों की हवा की गुणवत्ता को मापने के लिए गंभीर प्रयास हुए. धूल-कण के सैंपल लेने के लिए मोबाइल डस्ट सैंपलर्स ने रोशनी बिखरने वाली तकनीक का इस्तेमाल किया था. उस वक्त दिल्ली में वसंत विहार, भीकाजी कामा स्थित दिल्ली फायर स्टेशन, पालिका केंद्र, डिफेंस कॉलोनी, मंगलापुरी, घिटोरनी सहित कुछ 15 जगहों से हवा के नमूने जुटाए गए.योजना के पहले चरण में सामने आया कि उत्तरप्रदेश की सीमा से लगते पूर्वी और उत्तर-पूर्वी दिल्ली की छह जगहों पर हवा में पीएम 2.5 और पीएम 10 की मात्रा साउथ और सेंट्रल दिल्ली की तुलना में ज्यादा है.

लेकिन दूसरे चरण की शुरुआत हुई तो वही स्कीम एक बेवजह की दखलंदाजी जान पड़ी. इंडिया स्पेंड ने अपने आंकलन के आधार पर जो आंकड़े पेश किए उनसे पता चला, ‘ऑड-ईवन योजना के 15 से 29 अप्रैल की अवधि में दिल्ली की हवा में पीएम 2.5 की मौजूदगी 68.98 माइक्रोग्राम प्रति घनमीटर है. यह वायु-प्रदूषण की साधारण दशा का संकेत है. 1 अप्रैल से 14 अप्रैल के बीच दिल्ली की हवा में पीएम 2.5 कणों की मात्रा 56.17 माइक्रो ग्राम प्रति घनमीटर थी जिसका संकेत था कि दिल्ली में हवा की गुणवत्ता औसत दर्जे की है.’

ऑड-ईवन योजना को अब तीसरी बार लाने की तैयारी थी और इस पर 13 नवंबर से 17 नवंबर तक अमल किया जाना था. 8 नवंबर को अमेरिकी दूतावास के एयर मॉनिटर के पर्दे पर पीएम 2.5 का स्तर 726 नजर आया जो कि विश्व स्वास्थ्य संगठन की निर्धारित सीमा से 70 गुना ज्यादा है. लेकिन फिर कोहरा आ धमका, उसने अपनी मनमानी की और अब दबे पांव पीछे के दरवाजे से भाग निकलने की तैयारी में है.

अमेरिकी दूतावास के मॉनीटर के पर्दे पर 11 नवंबर की तारीख में पीएम 2.5 की मात्रा 316 दिख रही है (यह नुकसानदेह तो है लेकिन घातक नहीं). ऑड-ईवन योजना जब तक सड़कों पर अमल में आएगी तब तक पीएम 2.5 की मात्रा और भी ज्यादा घट चुकी होगी.

बीते 8 नवंबर को दिल्ली के स्वास्थ्य मंत्री सत्येंद्र जैन ने फ़र्स्टपोस्ट को बताया कि सड़कों पर आवाजाही की वजह से होने वाला प्रदूषण तो धूल-धुंध और धुएं के गुबार यानी स्मॉग का एक छोटा सा हिस्सा भर है, सो अभी के वक्त में ऑड-ईवन योजना लाना मददगार नहीं होगा. मंत्री ने कहा था, ‘अगर पीएम (2.5) 600 है तो इसमें ट्रैफिक का योगदान महज 100 ही है जो कि कुल के 15 से 20 फीसद से ज्यादा नहीं. मतलब, आप बाकी 80 फीसद के लिए कुछ नहीं कर सकते. अगर आप इस आंकड़े को आधा भी करते हैं तब भी उससे कोई असर नहीं होने वाला.’

स्वास्थ्य मंत्री सत्येंद्र जैन ने उस वक्त यह भी कहा था कि ऑड-ईवन योजना प्रदूषण में तभी मददगार हो सकती है जब पराली जलाने सरीखे बाहरी वजहों का समाधान किया जाए. इसके बावजूद ऑड-ईवन का फैसला लिया गया और वह भी एक हफ्ते की देरी से.

तो फिर क्या यह एकदम आखिरी लम्हे में उठाया गया कदम था और इसलिए उठाया जा रहा था कि दिल्ली या पंजाब और हरियाणा की सरकारों ने कोई एहतियाती कदम नहीं उठाये ? इस तथ्य को नकारना मुश्किल है कि इस किस्म की जहरीली धुंध ने पिछले साल भी दिल्ली का दम घोंटा था, पिछले साल पीएम 2.5 की मात्रा 999 तक जा पहुंची थी.

पिछले साल जो बहस चली उसके एक सिरे पर यह था कि दिल्ली के निवासी पटाखे बहुत फोड़ते हैं तबकि इसके प्रतिवाद में बहस के दूसरे सिरे से कहा जा रहा था कि कांग्रेस के शासन वाले पंजाब और बीजेपी के शासन वाले हरियाणा में किसान पराली जला रहे हैं.

फ़र्स्टपोस्ट से अपनी बातचीत में सत्येंद्र जैन ने जोर देकर कहा था कि उत्तर भारत की 800 किलोमीटर लंबी पूरी पट्टी को धूल और धुएं के धुंधलके ने घेर रखा है और आरोप लगाया कि पंजाब और हरियाणा की सरकारें किसानों को सहायता राशि नहीं दे रहीं सो किसानों के पास पराली जलाने के अलावा और कोई विकल्प नहीं रह गया है.
इस साल दिवाली के चंद रोज पहले से ही दिल्ली-एनसीआर में पटाखों के थोक और खुदरा बिक्री पर रोक लगा दी गई. ऐसे में दिल्ली के प्रदूषण के जिम्मेदार के तौर पर शक की पहली अंगुली पड़ोसी राज्यों के किसानों की ओर उठायी जा रही है.

जैन ने फ़र्स्टपोस्ट से कहा कि दूसरे राज्यों को चिट्ठी भेजी गई थी लेकिन इन सरकारों ने पराली जलाने वाले किसानों पर जुर्माना लगाने के अतिरिक्त और कुछ नहीं किया—पिछले साल हरियाणा में तकरीबन 1400 किसानों पर जुर्माना लगा था.

अगर हरियाणा और पंजाब की सरकारों ने लापरवाही दिखाई और दिल्ली की सरकार को इसका पता था तो फिर राजधानी दिल्ली में एहतियातन तैयारियां क्यों नहीं की गईं ? केजरीवाल ने 9 नवंबर के दिन 20 एयर-मॉनिटरिंग स्टेशन का उद्घाटन किया, क्या ये मॉनिटरिंग-स्टेशन्स दिवाली के पहले ही नहीं कायम किए जा सकते थे ?

आम आदमी पार्टी के बनाए 158 मोहल्ला क्लीनिक्स का नेटवर्क या फिर 38 सरकारी अस्पताल कई रोज पहले से ही मेडिकल मॉस्क बांट सकते थे और घरों के बाहर की हवा में मौजूद इंडोक्राइन डिसर्पटिंग केमिकल्स(ईडीसी) के बारे में लोगों को जागरुक कर सकते थे.

विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक, ‘भोजन, धूल और पानी के जरिए व्यक्ति ईडीसी की चपेट में आ सकता है, हवा में मौजूद कण तथा गैसों को सांस के रूप में ग्रहण करने अथवा इनका चमड़ी के संपर्क में आने से भी कोई व्यक्ति ईडीसी की चपेट में आ सकता है. ईडीसी गर्भवती महिला के पेट में पल रहे भ्रूण तक गर्भनाल के जरिए या नवजात शिशु के शरीर में मां के दूध के सहारे पहुंच सकता है. गर्भवती महिला और बच्चों को विकास-कार्यों से पैदा हानिकारक रसायनों का सबसे ज्यादा खतरा होता है और ईडीसी से होने वाला नुकसान जीवन के बाद के वर्षों में जाहिर होता है.’

दिल्ली जिस परेशानी से गुजर रही है उसके लिए दोषी ठहराए जा रहे किसानों के पास फसल को काट-पीटकर बाजार तक पहुंचाने के लिए 15 दिन का समय होता है. फिलहाल यह फसल गेहूं की है. जमाना मशीनों के जरिए होने वाली खेती का है और ऐसे में गेहूं की पराली खेत में ही छूट जाती है. इसे जानवर नहीं खाते, सो पराली को जला देना सबसे आसान और सस्ता उपाय है.

अभी पिछले हफ्ते ही नेशनल अकेडमी ऑफ एग्रीकल्चरल साइंसेज ने एक रिपोर्ट जारी की है. यह रिपोर्ट धान-गेहूं की पराली को सुरक्षित तरीके से जलाने की नई युक्तियों के बारे में है. रिपोर्ट का शीर्षक है ‘इनोवेटिव वायवल सॉल्यूशन टू राइस रेजिड्यू बर्निंग इन राइस-ह्वीट क्रॉपिंग सिस्टम थ्रू कन्करेन्ट यूज ऑफ सुपर स्ट्रॉ मैनेजमेंट सिस्टम-फिटेट कम्बाइन्स एंड टर्बो हैप्पी सीडर’.

रिपोर्ट में कहा गया है कि ‘आंकलन के मुताबिक भारत के पश्चिमोत्तर के राज्यों में सालाना 2 करोड़ 30 लाख टन धान की पराली जलाई जाती है. इतनी बड़ी मात्रा में पराली जुटाना और उनका भंडारण करना न तो व्यावहारिक रूप से संभव है न ही आर्थिक लिहाज से उचित.’

रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि आंकलन के मुताबिक धान की 80 फीसद पराली पंजाब के किसान जलाते है जबकि पश्चिमोत्तर के बाकी राज्यों में भी अच्छी खासी मात्रा में धान की पराली जलाई जाती है. रिपोर्ट में इस बात को स्वीकार किया गया है कि फसलों की पराली जलाने से प्रदूषण पैदा करने वाली मुख्य चीजें जैसे कि कार्बन डायआक्साइड, कार्बन मोनोआक्साइड, मीथेन, नाइट्रस आक्साइड, नाइट्रिक ऑक्साइड और नाइट्रोजन डायआक्साइड, सल्फर डायआक्साइड, ब्लैक कार्बन, नॉन मिथाइल हाइड्रोकार्बन, वोलाटाइल आर्गेनिक कंपाउंड(वीओसी) तथा पार्टिकुलेट मैटर (पीएम 2.5 और पीएम 10) हवा में जा मिलते हैं.

ये रसायन ग्लोबल वार्मिंग (वैश्विक तापन) के लिए भी जिम्मेदार हैं. रिपोर्ट के मुताबिक धान-गेहूं उपजाने के फसली-चक्र में स्ट्रॉ मैनेजमेंट सिस्टम फिटेड कंबाइन्स और टर्बो हैप्पी सीडर के इस्तेमाल से धान की छाड़न और पराली जलाने में कमी आएगी. पंजाब जैसे राज्यों में लगा पराली जलाने पर प्रतिबंध फिलहाल कारगर नहीं हो पाया है.

इस तकनीक के इस्तेमाल पर तकरीबन 470 करोड़ रुपए की लागत आएगी. यह एक ज्यादा टिकाऊ विकल्प जान पड़ता है लेकिन बहुत संभव है किसान पराली जलाने के कहीं ज्यादा सस्ते विकल्प को ही चुनें. साल 2016 के आर्थिक सर्वेक्षण के मुताबिक देश के 17 राज्यों में पांच सदस्यों वाले किसान-परिवार की औसत सालाना आमदनी 20 हजार रुपए है.

ट्विटर पर जारी किए जा रहे बयानों की दुनिया किसानों की चिंता से बेखबर दिख रही है. पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह ने हाल में ट्वीट किया कि हालत गंभीर तो है लेकिन पंजाब का किसान मजबूर है क्योंकि समस्या व्यापक है और राज्य सरकार के पास पराली के रख-रखाव के लिए किसानों को सहायता राशि देने लायक धन नहीं है. एक और ट्वीट में उन्होंने दोष दूसरे पर मढ़ने के अंदाज में लिखा कि समस्या के राष्ट्रव्यापी स्वरूप को देखते हुए सिर्फ केंद्र सरकार ही इसका समाधान कर सकती है.

केंद्र सरकार में पर्यावरण मंत्री हर्षवर्धन ने ट्वीट किया कि एक ग्रेडेड रेस्पांस एक्शन प्लान(कार्ययोजना) बनाया गया है और मंत्रालय ने इसकी अधिसूचना जारी की है. समस्या से जुड़े सभी पक्षों को इसपर सख्ती से अमल करना होगा.

यह कार्य-योजना हवा की गुणवत्ता से संबंधित अलग-अलग श्रेणियों के मद्देनजर क्रियान्वयन के लिए तैयार की गई है. कार्य-योजना में ऑड-ईवन स्कीम से लेकर ईंट भट्ठों और ऊर्जा-संयंत्रों को बंद करने और पार्किंग फीस बढ़ाने से लेकर बिन खड़ंजे की सड़कों पर पानी के छिड़काव करने जैसे बहुत से उपाय बताये गए हैं. थोड़े में कहें तो कार्य-योजना यह सुझाती है कि प्रदूषण का स्तर हद से ज्यादा बढ़ जाए तो प्रतिक्रिया के तौर पर क्या-क्या किया जाना चाहिए. लेकिन प्रदूषण के हालात गंभीर न हों—ऐसा सुनिश्चित करने वाले उपाय कहां हैं ?

अगर दिल्ली, हरियाणा, पंजाब या फिर केंद्र की सरकार ने मसले पर इस नुक्ते से सोचा होता तो दिल्ली इस तरह अपने ही हाथों अपना गला घोंटते नजर नहीं आती !

(Pallavi Rebbapragada for Hindi.firstpost.com)

 

 

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