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80 बार जेल जाने वाले राजनारायण, जिनसे डर गईं थीं इंदिरा

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80 बार जेल जाने वाले राजनारायण, जिनसे डर गईं थीं इंदिरा

 

 

उम्र 69 साल. जेल गए 80 बार. जेल में बिताए कुल 17 साल, जिसमें तीन साल आजादी से पहले और 14 साल आजादी के बाद. इतने साल तो गांधीजी ने भी जेल में नहीं बिताए होंगे. वही शख्स, जिससे लौह महिला इंदिरा गांधी बुरी तरह डर गईं थीं. इतनी आतंकित हो गईं कि इमरजेंसी लगा दी. वो राजनारायण थे. जिनकी इस साल जन्मशती है. इसी महीने में जन्मदिन लेकिन किसी को वो याद नहीं. वो ऐसी शख्सियत भी हैं, जिसके कारण केंद्र में गैरकांग्रेसी सरकारें बननीं शुरू हुई.

आजाद भारत में समता, बंधुत्व, और सदभाव की खातिर कम लोगों ने जीवन में इतनी प्रताड़ना सही होगी. जो राजनीति के फक्कड़ नेता थे. वह राममनोहर लोहिया के साथ सोशलिस्ट पार्टी के संस्थापकों में थे. हर किसी के लिए उपलब्ध और हर किसी के मददगार. हालांकि बाद के बरसों में उन्हीं के सियासी साथियों ने उनसे दूरी बना ली और उन्हें भारतीय राजनीति का विदूषक भी कहा जाने लगा.

विपक्ष कमजोर हाल में था
60 के दशक के खत्म होते होते इंदिरा मजबूत प्रधानमंत्री बन चुकी थीं. कांग्रेस के ताकतवर नेता उनके सामने पानी मांग रहे थे. विपक्ष बहुत कमजोर स्थिति में था. ऐसे में जब इंदिरा गांधी ने वर्ष 1971 में दोबारा चुनाव जीतकर आईं तो किसी बड़े नेता में उनसे टकराने की हिम्मत नहीं थी.ऐसे में राजनारायण ना केवल उनसे भिड़े बल्कि विपक्ष को एक करने की जमीन भी बनाई. अगर वह इंदिरा को मुकदमे में टक्कर नहीं देते तो ना जयप्रकाश नारायण संपूर्ण क्रांति का आंदोलन कर पाते, ना आपातकाल लगता और ना ही 1977 के चुनावों में इंदिरा गांधी को बुरी तरह हार का सामना करना पड़ता.

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राजनारायण, जिनसे घबरा उठी थीं इंदिरा गांधी

जन्म राजसी परिवार में
राजनारायण का जन्म बनारस के उस जमींदार परिवार में हुआ था, जो वहां के राजघराने से जुड़ा माना जाता था. बहुतायत में जमीनें थीं. लंबी चौड़ी खेती. रसूख और रूतबा. वह अलग मिट्टी के बने थे.

समाजवाद में तपे और ढले हुए. उनके खास सहयोगी रहे क्रांति प्रकाश कहते हैं कि उन्होंने अपने हिस्से की सारी जमीन गरीबों को दे दी. उनके खुद के परिवार में बहुत विरोध हुआ. भाइयों ने बुरा माना. वह टस से मस नहींं हुए. यहां तक कि अपने बेटों के लिए कोई संपत्ति नहीं छोड़ी.

इंदिरा के खिलाफ हर जगह लड़े
बहुत पहले डॉ. युगेश्वर कल्हण की किताब छपी थी, ‘आपातकाल का धूमकेतु: राजनारायण.’ तब राजनारायण और इंदिरा गांधी दोनों जीवित थे. वो किताब कुछ सालों पहले फिर प्रकाशित हुई. किताब में कहा गया, राजनारायण ने इंदिरा गांधी के खिलाफ लड़ाई हर जगह लड़ी. संसद में और सड़क पर भी.

चुनाव के मैदान में और अदालत में भी. कोई मोर्चा छोड़ा नहीं. 1969 में जिन समाजवादियों को लगता था कि इंदिरा सही काम कर रही हैं, उनका मोहभंग हो चुका था. 1971 के चुनावों में रायबरेली से इंदिरा के खिलाफ मजबूत उम्मीदवार खड़ा किया जाना था. कोई तैयार नहीं था. न चंद्रभानु गुप्ता तैयार हुए और न चंद्रशेखर की हिम्मत हुई . न किसी अन्य दिग्गज नेता की. ऐसे में राजनारायण सिंह संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के उम्मीदवार बने.

चुनाव हारे और अदालत में चुनौती
राजनारायण 1971 का चुनाव हार गए. चुनाव जीतीं इंदिरा गांधी. राजनारायण ने चुनाव जीतने के लिए इंदिरा के सारे गलत हथकंडों पर नजर रखी. उसे संवैधानिक और असंवैधानिक रूप दिया. उनके एक–एक भ्रष्टाचार को गिनते रहे. चुनाव खत्म होते ही न्यायालय पहुंचे. उन्होंने सात आरोप लगाए. मुकदमा शुरू हुआ. लंबा चला. एक समय ऐसा भी आया जब इंदिरा गांधी को खुद अदालत में हाजिर होना पड़ा. सफाई देनी पड़ी. उनसे छह घंटे तक पूछताछ हुई.

इंदिरा के खिलाफ फैसला
आखिरकार पांच साल बाद फैसला आया. इंदिरा गांधी ने उस दौरान जजों को भयभीत कर रखा था. इसके बाद भी इलाहाबाद हाईकोर्ट के जज जगमोहन लाल सिन्हा ने इंदिरा के प्रभाव की कोई परवाह नहीं की. खुफिया ब्यूरो (आइबी) के एक अफसर को इलाहाबाद में इस काम में लगाया गया था कि वह बता सके कि फैसला क्या आने वाला है.

जज ने टाइपिस्ट को घर बुलाया. फैसला लिखवाया. उसे तभी जाने दिया, जब फैसला सुना दिया गया. उन्होंने इंदिरा गांधी के रायबरेली चुनाव को अवैध घोषित कर दिया. उन पर छह सालों तक चुनाव लड़ने पर रोक लग गई. पुपुल जयकर ने इंदिरा की जीवनी में लिखा कि इंदिरा को आशंका थी कि फैसला उनके खिलाफ आ सकता है. 12 जून 1975 को फैसला आया. इसके 14वें दिन इंदिरा ने देशभर में आपातकाल लगा दिया.

सबसे पहले राजनारायण की गिरफ्तारी
आपातकाल लगने के कुछ ही घंटों के अंदर सबसे पहले राजनारायण को गिरफ्तार किया गया. उसी दिन जयप्रकाश नारायण, मोरारजी देसाई, सत्येंद्र नारायण सिन्हा और अटलबिहारी वाजपेयी की गिरफ्तारी हुई. देशभर में हजारों लोग जेलों में डाले गए. यकीनन राजनारायण वो शख्स थे, जिन्होंने इंदिरा को बुरी तरह आतंकित कर दिया था कि उन्होंने ये कदम उठाना पड़ा. लेकिन इसने विपक्ष को साथ आने का मौका दिया.

वर्ष 1977 में पहली बार केंद्र में कांग्रेस के अलावा दूसरी पार्टी सत्तारुढ़ हुई. बेशक जनता पार्टी की सरकार अपने अंतरविरोधों की वजह से जल्दी ढह गई लेकिन देश में गैरकांग्रेसी आंदोलन को नई ऑक्सीजन मिली. 1977 में जब इंदिरा गांधी ने आपातकाल हटाकर चुनाव कराया तो रायबरेली पर उनके खिलाफ फिर राजनारायण सामने थे. इस बार उन्होंने इंदिरा को बुरी शिकस्त दी. अपने पूरे राजनीतिक करियर में इंदिरा ने सही मायनों में एक ही शख्स से शिकस्त पाई. वो राजनारायण थे.

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राजनारायण

वो काम किए जो किसी ने नहीं किए थे
हाल ही में राजनारायण की स्मृति में उनके समर्थकों ने दिल्ली में एक सेमीनार कराया. जिसमें सभी लोगों ने लोकबंधु को याद किया. उनके व्यक्तित्व और काम पर चर्चा हुई. क्रांति प्रकाश बताते हैं कि जब जनता पार्टी के शासनकाल में राजनारायण स्वास्थ्य मंत्री बने तो उन्होंने तुरंत गरीबों को इलाज और ऑपरेशन के लिए आर्थिक मदद शुरू कराई. दिल्ली के सरकारी अस्पतालों के नाम बदल दिए गए.

लोहिया से संबंध बिगड़े
वह ताजिंदगी समाजवादी नेता राममनोहर लोहिया के करीबी रहे. उनके प्रिय पात्र. एक बार संबंधों में खटास आई. उसे राजनारायण ने खास अंदाज में दूर किया. राजनारायण 1962 में विधानसभा के चुनावों में हार गए. वर्ष 52 से पहली बार वह विधानसभा से बाहर थे. पांच साल ये स्थिति बनी रहनी थी.

ऐसे में लोहिया के नहीं चाहने के बाद भी वह 62 में राज्यसभा चुनाव के लिए लड़े. जीत भी गए. लोहिया को ये अच्छा नहीं लगा. उन्होंने माना कि राजनारायण ने सिद्धांतों के खिलाफ गलत काम किया है. उनसे बातचीत बंद कर दी. घर आना बंद करा दिया. ये जगजाहिर था कि लोहिया अगर किसी से एक बार संबंध तोड़ लेते हैं तो फिर जोड़ते नहीं.

इस तरह लोहिया को मनाया
राजनारायण ने भरसक कोशिश की लेकिन लोहिया टस से मस नहीं हुए. उन्होंने खास तरीका निकाला. वह अगले कुछ महीनों तक राज्यसभा से निकलकर उस गेट पर धरना देकर बैठ जाते थे, जिससे लोहिया जी निकलते थे.

जब वह लगातार ये करते रहे तो लोहिया जी को झुकना पड़ा. संबंध फिर बहाल हो गए. लोहिया पर रामकमल राय ने अपनी किताब ‘राम मनोहर लोहियाः आचरण की भाषा’ में कहा है कि लोहिया जी अक्सर कहते थे जब तक राजनारायण जिंदा हैं, देश में लोकतंत्र मर नहीं सकता.

काशी विश्वनाथ मंदिर का दरवाजा दलितों के लिए खुलवाया
लोकनीति अभियान से जुड़े और अधिवक्ता संजीव उपाध्याय याद करते हैं कि किस तरह नेताजी यानि राजनारायण दलितों के प्रेमी थे. उनकी अगुवाई में बनारस के काशी विश्वनाथ मंदिर में दलितों औऱ अनुसूचित जाति के प्रवेश के लिए आंदोलन हुआ. उनके दरवाजे हमेशा जरूरतमंदों के लिए खुले होते थे.

वह दिल्ली में जब रहते थे तो कोई खाली हाथ नहीं लौटता था. किसी के पास किराया नहीं होता था तो किसी के पास भोजन-हर किसी की वह मदद करते थे. क्रांति प्रकाश कहते हैं, उनका जीवन हमेशा सादगी से भरा रहा.साधारण कपड़ा पहनते थे. जीवन में कोई लग्जरी नहीं थी. हां, बस वह खाने के शौकीन थे. उनके पास जो भी पैसा आता था, वो जरूरतमंदों में बंट जाता था. कभी अपने लिए एक पैसा नहीं जुटाया.

पासवान को खुद टिकट देने गए
राजनारायण को लेकर और भी कुछ कहा जाता है. अगर 1977 के चुनावों में वह रामविलास पासवान समेत तीन नेताओं का टिकट कटने पर उन्हें खुद विमान से टिकट देने गए तो जनता पार्टी की टूट के लिए भी उन्हें कसूरवार ठहराया जाता है.

जनता पार्टी टूटने पर वह पहले चरण सिंह के मददगार बने और बाद में उन्हीं के खिलाफ ताल ठोंककर चुनावों में कूद पड़े. बाद में उन्हीं के सियासी साथी उनसे परहेज करने लगे.

उन्हीं साथियों ने उन्हें भारतीय राजनीति का विदूषक भी करार दिया. लेकिन ये बात सही है कि लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए उन्होंने कभी कोई समझौता किया ही नहीं. राजनारायण फकीर की भांति दुनिया से विदा हुए. 31 दिसंबर 1986 को उनका निधन हो गया. न मकान, न जमीन, न बैंक–बैलेंस.

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