प्रेम संबंध में धोखे के बिना सहमति से शारीरिक संबंध बनाने को बलात्कार नहीं माना जा सकता: इलाहाबाद हाई कोर्ट
इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने एक महत्वपूर्ण फैसले में कहा है कि यदि लंबे समय तक चलने वाले सहमतिपूर्ण शारीरिक संबंध में शुरुआत से ही कोई धोखा या छल नहीं है तो ऐसे संबंध को भारतीय दंड संहिता की धारा 375 के अंतर्गत बलात्कार नहीं माना जा सकता है। धारा 375 बलात्कार को महिला की सहमति के बिना उसके साथ यौन संबंध बनाना परिभाषित करता है।
कोर्ट ने मोरादाबाद के एक व्यक्ति के खिलाफ दायर बलात्कार के मामले में चल रही कार्यवाही को रद्द कर दिया। यह व्यक्ति एक महिला से शादी करने का झूठा वादा करके उसके साथ शारीरिक संबंध बनाया था। महिला ने आरोप लगाया था कि व्यक्ति ने उसके साथ शादी करने का वादा किया था लेकिन बाद में वादा तोड़ दिया और दूसरी महिला से सगाई कर ली।
शादी का वादा: एक महत्वपूर्ण तत्व
हाई कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि शादी का वादा करने से सहमति से यौन संबंध बनाना बलात्कार नहीं बनता है। ऐसा तभी माना जाएगा जब यह साबित हो कि शादी का वादा शुरुआत से ही झूठा था। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि यदि शुरूआत से ही किसी तरह का छल या धोखा नहीं था तो शादी के वादे को झूठा वादा नहीं माना जाएगा।
सहमतियुक्त संबंधों में धोखे की भूमिका
कोर्ट ने कहा कि यदि एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति से शादी करने का वादा करता है और दोनों व्यक्ति जानते हैं कि वादा टूट सकता है तो ऐसे में इसे छल नहीं माना जा सकता। अगर दोनों व्यक्ति जानबूझकर शादी का वादा करते हुए संबंध बनाते हैं, तो बाद में उस वादे को तोड़ देने पर उसे बलात्कार नहीं माना जा सकता।
प्रमाणों की समीक्षा और निर्णय
इस मामले में हाई कोर्ट ने एक विधवा और एक युवक के बीच 12-13 सालों तक चले सहमतिपूर्ण शारीरिक संबंधों की जाँच की। महिला ने युवक के विरुद्ध बलात्कार का आरोप लगाया था। कोर्ट ने प्रमाणों के आधार पर पाया कि महिला का अपने पूर्व पति के व्यवसाय में काम करने वाले युवक पर बहुत अधिक प्रभाव था। उसने कहा कि इस रिश्ते में महिला का युवक पर बहुत ज्यादा प्रभाव था और उसने युवक को धोखे में रखकर उससे संबंध बनाए थे।
हाई कोर्ट ने नैम अहमद बनाम हरियाणा राज्य मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का हवाला दिया। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि शादी के वादे को तोड़ने को हर बार झूठा वादा नहीं माना जा सकता और इस आधार पर बलात्कार का आरोप नहीं लगाया जा सकता।
अनुमति और न्याय
उच्च न्यायालय ने आरोपी के खिलाफ बलात्कार और जबरन वसूली के आरोपों को रद्द करते हुए यह स्पष्ट कर दिया कि इन आरोपों में बलात्कार और जबरन वसूली की कानूनी परिभाषा के अनुरूप प्रमाण नहीं हैं।
निष्कर्ष
यह फैसला सहमति और धोखे के महत्वपूर्ण अंतर पर प्रकाश डालता है। यह प्रेम संबंधों में सहमतिपूर्ण शारीरिक संबंधों की सही परिभाषा और बलात्कार के आरोपों के आधार पर संतुलन कायम करने में सहायक है। यह बताता है कि हर शादी का वादा धोखा नहीं होता, और न ही हर सहमतिपूर्ण संबंध बलात्कार माना जा सकता है।
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